धर्म का प्रारंभ दान से ही होता है: आचार्यश्री प्रभाकरसूरी

'आहार संज्ञा की आसक्ति को तोड़ने के लिए तप धर्म है'

धर्म का प्रारंभ दान से ही होता है: आचार्यश्री प्रभाकरसूरी

'परमात्मा की पूजा उच्च भावना से करनी चाहिए'

बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के महालक्ष्मी लेआउट स्थित चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्यश्री प्रभाकरसूरीश्वरजी व साध्वीश्री तत्वत्रयाश्रीजी की निश्रा में अपने प्रवचन में आचार्यश्री ने शुक्रवार को सकल संघ को बेसते महीने का ऋद्धि-सिद्धि दायक महामांगलिक श्रवण करवाया।

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मांगलिक के पश्चात आचार्यश्री ने कहा कि आहार संज्ञा की आसक्ति को तोड़ने के लिए तप धर्म है। भय संज्ञा की आसक्ति को तोड़ने के लिए भाव धर्म, शरीर संज्ञा की आसक्ति को खत्म करने के लिए शील धर्म व परिग्रह की संज्ञा को खत्म करने के लिए दान धर्म बताया गया है। दान, धर्म का उद्देश्य ही आत्मा को परिग्रह की आसक्ति से मुक्त करना है। दान के साथ धन की आसक्ति से मुक्ति नहीं होती तो वह वास्तविक दान नहीं कहलाएगा। 

उन्होंने कहा कि यश, कीर्ति व नाम की लालसा से किया गया दान वास्तविक दान नहीं है। ऐसे दान से भव मुक्ति नहीं हो सकती। धन की आसक्ति को तोड़ने सुपात्र में दिया दान ही मोक्ष का साधन बनता है। धर्म का प्रारंभ दान से ही होता है। दान से अधिक कठिन शील धर्म का पालन करना है। यहां इंद्रियों की सुखों की आसक्ति को तोड़ना है। 

इसी प्रकार शील में तप धर्म कठिन है। तप का सीधा प्रभाव शरीर पर पड़ता है। तप से भाव धर्म कठिन है। भाव का संबंध मन से है। जो व्यक्ति आसपास विद्यमान आसक्तियों को नहीं छोड़ सकता वह कठिन तप नहीं कर सकेगा। 

आचार्यश्री ने बताया कि भगवान ने दान, शील, तप और भाव चार प्रकार का धर्म बताए हैं। उसमें भी भाव का महत्व सबसे अधिक है। जिस प्रकार खाने में सभी मसालों में से नमक का महत्व ऊपर है, उसी तरह दान, शील, तप का महत्व भी तभी है, अगर उसमें भाव जुड़े हुए हों। हमें दान, शील का पालन, तपस्या और परमात्मा की पूजा उच्च भावना से करनी चाहिए। तभी हम सच्चे श्रावक कहलाने के अधिकारी बनेंगे। 

सभा में मुनिश्री महापद्मविजयजी, पद्मविजयजी, साध्वी तत्वत्रयाश्रीजी, गोयमरत्नाश्रीजी व परमप्रज्ञाश्रीजी उपस्थित थे।

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