'सच्चा धर्म भीतर के गुणों की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है'

प्रश्नोत्तरी के माध्यम से धर्म के गूढ़ रहस्यों का विवेचन

'सच्चा धर्म भीतर के गुणों की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है'

नरक का डर दिखाकर धर्म सिखाना तात्त्विक रूप से उपयुक्त नहीं है

चेन्नई/दक्षिण भारत। किलपॉक जैन संघ में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्यश्री हीरचंद्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न पंन्यास प्रवर श्री विमल पुण्यविजयजी म.सा. ने शनिवार को आयोजित धर्मसभा में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए धर्म के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डाला। 

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प्रवचन में उन्होंने कहा कि नरक का डर दिखाकर धर्म सिखाना तात्त्विक रूप से उपयुक्त नहीं है। यह कल्पनात्मक उदाहरण के रूप में हितकारी वचनों को स्थिर करने का एक माध्यम हो सकता है, परंतु समकिती साधक कभी भी भयवश नरक आदि से नहीं डरता। वह तो भीतर के दोषों से भय खाता है, जैसे कि समाधि में बाधा उत्पन्न करने वाला दुःख।

उन्होंने स्पष्ट किया कि वैराग्य के तीन प्रकार होते हैं दुःखगर्भित, मोहगर्भित और ज्ञानगर्भित। ज्ञानगर्भित वैराग्य ही धर्म का सच्चा आधार है। उन्होंने कहा कि सच्चा धर्म भीतर के गुणों की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है, न कि भय या लोभवश। बाल व युवा वर्ग में धार्मिक चेतना विकसित करने हेतु उन्होंने चरणबद्ध शिक्षण प्रणाली की बात की। वात्सल्य, समुचित मार्गदर्शन, अनुशासन और तार्किक शिक्षण।

उन्होंने कहा कि अनुष्ठानों में भाव का प्रमुख स्थान है। भगवान के समक्ष किया गया प्रक्षालन वास्तव में हमारी आत्मा की शुद्धि का प्रतीक है। एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि मंदिर में ऐसी वस्तु नहीं ले जानी चाहिए, जिससे चित्त जुड़ा हो यानी वह सचित हो। प्रभु को समर्पण अहोभाव से होना चाहिए, केवल धन या बाह्य प्रदर्शन से नहीं।

जब भावपूर्ण भगवान का पक्षालन करते है तो भगवान नहीं, हम भीतर से शुद्ध होते हैं। जो प्रभु को अर्पण करना है, वह स्वप्रयोग के लिए नहीं करते। भगवान के दरबार में अष्टप्रकारी पूजा ही की जाती है, धन आदि चढ़ाने से नहीं।

प्रवचन के दौरान एक श्राविका ने श्रद्धा-भाव से नौ उपवास का प्रत्याख्यान लिया। आगामी मंगलवार व बुधवार को नेमीनाथ भगवान के जन्म व दीक्षा कल्याणक को सामूहिक अट्ठम तप के साथ मनाया जाएगा। साथ ही, रविवार को 'भीतर में रहे हुए कर्मों का क्षय कैसे करें' विषय पर शिविर का आयोजन होगा।

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