मनोरंजन या नैतिक पतन?
अश्लील और अभद्र सामग्री की बौछार हो गई है
रिवार के साथ बैठकर टीवी देखने का चलन लगभग खत्म हो गया है
केंद्र सरकार ने अश्लीलता फैला रहे 20 से ज्यादा ऐप पर प्रतिबंध लगाकर सख्त संदेश दिया है। डिजिटल क्रांति के इस युग में सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स का बहुत विस्तार हुआ है। इन पर अश्लील और अभद्र सामग्री की बौछार हो गई है। कौनसा दृश्य कब परिवार के सामने असहज कर दे, कुछ कहा नहीं जा सकता! अब तो परिवार के साथ बैठकर टीवी देखने का चलन लगभग खत्म हो गया है। ऐसी फिल्मों और धारावाहिकों का निर्माण भी नहीं होता, जो पूरे परिवार को स्वस्थ मनोरंजन उपलब्ध कराएं। उनमें द्विअर्थी संवादों की इतनी भरमार हो गई है कि छोटे बच्चे उन्हें दोहराते मिल जाएंगे। यह कोई गर्व करने का विषय नहीं है। कई धारावाहिक न कोई अच्छा संदेश देते हैं और न उनसे स्वस्थ मनोरंजन ही होता है। फिर भी उन्हें सालों-साल खींचा जाता है। मनोरंजन उद्योग को जवाबदेह बनाना होगा। अश्लीलता का सिलसिला अब आगे नहीं बढ़ना चाहिए। महिलाओं के अपमानजनक चित्रण को किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। सरकार का यह कदम सराहनीय और स्वागत योग्य है। इसके साथ ही ऐसी फिल्मों, धारावाहिकों और वेब सीरीजों का निर्माण करना होगा, जो देशभक्ति का संदेश दें, जिनसे समाज में सद्भाव पैदा हो, परिवार में प्रेम का वातावरण बने। भले ही फिल्म, वेब सीरीज आदि कम बनें, लेकिन अच्छी बनें। यूट्यूब पर अस्सी और नब्बे के दशक के कई धारावाहिक आज भी बहुत देखे जाते हैं। उनमें न कोई अश्लीलता मिलेगी, न कोई द्विअर्थी संवाद होगा। उन्हें परिवार के साथ बैठकर देखा जा सकता है। हर दशक में लोगों की पसंद में कुछ बदलाव आता है। क्या देशभक्ति के आदर्श और पारिवारिक मूल्यों को लेकर आज अच्छी सामग्री का निर्माण नहीं किया जा सकता?
बिल्कुल किया जा सकता है, लेकिन लोगों को उनका समर्थन करना होगा। प्राय: निर्माताओं की शिकायत रहती है कि अच्छी सामग्री को लोग ज्यादा पसंद नहीं करते। हमें इस धारणा को बदलना होगा। मनोरंजन सिर्फ इसलिए नहीं होता कि कोई व्यक्ति समय बिता सके। उसे अच्छा संदेश भी मिलना चाहिए। अगर किसी सामग्री को देखने के बाद व्यक्ति का नैतिक पतन हो, उसकी बोलचाल में अभद्र शब्द शामिल हो जाएं, वह कुंठित महसूस करे, वह अपराध करने में रुचि लेने लगे तो ऐसी सामग्री खतरनाक है। उस पर तुरंत प्रतिबंध लगाना चाहिए। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में वैसी सामग्री दोबारा कहीं दिखाई न दे। अभिव्यक्ति की आज़ादी का यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि अश्लीलता परोसने की छूट दे दी जाए। जो व्यक्ति ऐसी सामग्री का निर्माण करता है, जिससे हजारों-लाखों लोग प्रभावित हो सकते हैं, उसे बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। प्राय: आपत्तिजनक दृश्यों के पक्ष में ऐसी दलील दी जाती है कि यह तो 'सीन की डिमांड' थी। सवाल है- ऐसी डिमांड पैदा ही क्यों की जाती है? क्या कोई विवश करता है? स्पष्ट है कि जानबूझकर ऐसे दृश्य डाले जाते हैं। उन्हें 'कला' कहकर प्रचारित किया जाता है। ऐसी सामग्री का मुफ्त में प्रचार करने के लिए एक और हथकंडा अपनाया जाता है। सबसे पहले सोशल मीडिया में यह जानकारी पेश की जाती है कि फलां फिल्म में ऐसा दृश्य है, जो किसी की भावनाओं को आहत कर सकता है। देखते ही देखते देशभर में उसकी चर्चा होने लगती है। कुछ लोग एफआईआर दर्ज करा देते हैं, टीवी चैनलों पर तीखी बहसें होने लगती हैं। कुछ दिनों तक माहौल को गरमाया जाता है। एक दिन अचानक खबर आती है कि निर्माता वह दृश्य हटाने के लिए सहमत हो गए हैं। इसके बाद विरोध-प्रदर्शन रुक जाते हैं। सिनेमाघरों में भीड़ उमड़ने लगती है। अगर कोई निर्माता अभद्र, अश्लील और आपत्तिजनक दृश्य डालता है तो सबसे अच्छा उपाय है- उसकी फिल्म देखने ही न जाएं। जिसे एक बार करोड़ों रुपए का भारी घाटा हो जाएगा, वह अगली बार वैसी फिल्म नहीं बनाएगा।

