'शब्द' संस्था आपस में जुड़ने का देती है अवसर

'कविता मनुष्य की संवेदना का स्पर्श करती है'

'शब्द' संस्था आपस में जुड़ने का देती है अवसर

'कविता निजी अनुभव का सार्वभौमिक रूपांतरण होती है'

बेंगलूरु/दक्षिण भारत। प्रसिद्ध साहित्य संस्था 'शब्द' की बीते रविवार को आयोजित मासिक रचनागोष्ठी में संस्था के अध्यक्ष श्रीनारायण समीर ने स्वागत संबोधन में कहा कि कविता अभिधा नहीं, व्यंजना में बोलती है। इसलिए कलाओं के वर्ग में उसे सर्वश्रेष्ठ कला माना जाता है। कविता मनुष्य की संवेदना का स्पर्श करती है और करुणा की जमीन से वैभव प्राप्त करती है। कविता निजी अनुभव का सार्वभौमिक रूपांतरण होती है। यह व्यंजना में ही संभव है। इसलिए आपबीती को जगबीती बनाने की काव्य-कला साधना की माँग करती है। 

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हंसराज मुणोत की अध्यक्षता में आयोजित रचनागोष्ठी का संचालन ‘शब्द’ के कार्यक्रम संयोजक श्रीकांत शर्मा कर रहे थे। आरंभ बिंदु रायसोनी की सरस्वती वंदना से हुआ। उन्होंने पावस पर एक गीत भी सुनाया।

रचनागोष्ठी के शुरुआती दौर में युवा कवि दीपक सोपोरी ने ‘ज़फरनामे की नज्र’ नामक मसनवी शैली की कविता सुनाई और श्रोताओं की वाहवाही लूटी। खंडवा से आये श्यामसुंदर तिवारी ने नवगीत सुनाया, जबकि पेशे से अधिवक्ता अंजु भारती ने पावस ऋतु के अनुरूप कजरी सुनाई।

ऋताशेखर मधु, राजेन्द्र गुलेच्छा, अशोक कुमार सूर्य और कृष्ण कुमार पारीक की कविताएं भी श्रोताओं ने पसंद की। नाटककार मथुरा कलौनी के शब्द चित्र का व्यंग्य प्रभावकारी था। ‘शब्द’ की सचिव उषारानी राव की कविता में नीलगिरि के ब्याज से बदलते समय का शब्द चित्र सुंदर था।

मुंबई से आये उदय कुमार सिंह की कविता मध्यवर्गीय जीवन की आपबीती पर केंद्रित थी। वरिष्ठ कवि अनिल विभाकर की ‘प्रेजल’ और ‘स्लेट पर लिखे कुछ सवाल’ कविताओं का श्रोताओं ने तालियों की गूँज से स्वागत किया। लोकेश मिश्र के सुधुर गीतों के जादुई असर से भी श्रोता खूब प्रभावित हुए। उमेश पर्वत, उत्कर्ष सिन्हा, उमा नाग और नमिता सिन्हा की प्रस्तुति भी अच्छी रही।

रचनागोष्ठी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के रिटायर प्रोफेसर युगल, कथाकार चन्द्रकला त्रिपाठी एवं नाटक साहित्य के मर्मज्ञ वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी की उपस्थिति उल्लेखनीय थी। चन्द्रकला त्रिपाठी ने अपने सम्बोधन में कहा कि मनुष्यता और सामाजिकता आज संकट में हैं किंतु दमन का जीवन लंबा नहीं होता। आज संकट का मुकाबला साहित्य और संस्कृति अपने तरीके से कर रहे हैं। भाषा को लेकर भारत में जो गाँठें यहां-वहां दिखाई दे रही हैं, आप सभी की रचनाएं अपनी स्वच्छंदअभिव्यक्ति से उसका प्रतिकार ही तो हैं। 'शब्द’ के ये प्रयास हमें आकर्षित करते हैं।

इस मौके पर वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने कहा कि भाषा को लिपि के बंधन से मुक्त करना होगा । भाषा को पानी की तरह बहने देने में क्या हर्ज है? बनारस में दक्षिण के संस्कृत विद्वान कन्नड़, तमिल लिपियों में संस्कृत पढ़ते /लिखते हैं। उन्होंने कहा कि कविता अंतराल छोड़ती है। सहृदय को उसे समझना पड़ता है। ‘शब्द; संस्था आपस में जुड़ने का आश्वासन देती है। 

अध्यक्षीय सम्बोधन में हंसराज मुणोत ने ‘शब्द’ की स्थापनाकाल से लेकर अब तक की प्रगति का उल्लेख करते हुए रचनागोष्ठी में कवियों द्वारा सुनाई गई कविताओं की प्रशंसा की । उन्होंने जीवन के उतार-चढ़ाव पर एक मार्मिक कविता सुनाई। गोष्ठी का संचालन कर रहे श्रीकांत शर्मा ने अपनी बारी में दो देसज लोकगीत सुनाए। दीपक सोपोरी के धन्यवाद ज्ञापन से कार्यक्रम संपन्न हुआ।

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