विनय नहीं तो धर्म नहीं और धर्म नहीं तो जीवन नहीं: आचार्यश्री प्रभाकरसूरी
शांति का मूल मंत्र विनय है

गुणों को दूषित करने वाला दुर्गुण है- अहंकार
बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के महालक्ष्मी लेआउट स्थित चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्यश्री प्रभाकरसूरीश्वरजी व साध्वी तत्वत्रयाश्रीजी के सान्निध्य में चल रहे चातुर्मास में आचार्यश्री नेकहा कि दशवैकालिक सूत्र, भगवती सूत्र, तत्वार्थ सूत्र से जैन दर्शन समझा जा सकता है लेकिन सबसे अधिक महत्वपूर्ण उत्तराध्ययन सूत्र है।
उत्तराध्ययन सूत्र को जैन धर्म की गीता कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस सूत्र का प्रारम्भ नमन अर्थात् विनय से होता है वैसे जैन धर्म का आधार स्तंभ भी नमन है। जैन धर्म का महामंत्र नमोकार मंत्र भी नमन से प्रारम्भ होता है। नमन अर्थात् विनय साधारण भाषा में नम्रता या आज्ञापालन से लिया जाता है लेकिन इस सूत्र विनय का अर्थ व्यक्ति अहंकार रहित व उसकेआचार व शील से है।
यह धर्म व जीवन का मूल गुण है। जहां विनय नहीं है वहां धर्म नहीं है और जहां धर्म नहीं है वहां जीवन नहीं है। इसी प्रकार महावीर ने परिग्रह, श्रद्धा, सत्य, अहिंसा आदि विषयों पर प्रकाश डाला और उसके अनुसरण करने पर मनुष्य स्व-कल्याण की ओर आगे बढ़ सकता है।
आचार्यश्री ने कहा की शांति का मूल मंत्र विनय है। जैसे ढलाव के कारण नदियों का पानी समुद्र में समा जाता है, वैसे ही विनय ढलाव के कारण, सभी सद्गुण जीव में आत्मा में समा जाते हैं। गुणों को दूषित करने वाला दुर्गुण है अहंकार। अवगुणों में गुणों को सुगन्ध डालने वाला कलारूप साधन है 'विनय’।
सम्पूर्ण श्रेष्ठताओं को विकारी भाव देने का दोष अहंकार में है। जैसे दूध में डाली गई काचरी, हलवे में पड़ा हुआ जहर वस्तु को विषाक्त बनाकर उन्हें अखाद्य अपेय बना देता है, उसी तरह मोक्षमार्ग में चरण बढ़ाने वाले ज्ञान, दर्शन, चारित्र के गुणों को भी अहंकार विषाक्त बना देता है।
रविवार को धार्मिक पाठशाला के बालक बालिकाओं द्वारा लोभी सेठ नामक नाटक की प्रस्तुति की गई जिसमे ये सीख दी गई की जीवन में अपने पुण्य से प्राप्त लक्ष्मी का धार्मिक कार्यों मे सदुपयोग करना चाहिए, उसे संचय करके नहीं रखना चाहिए।
सभा में मुनिश्री महापद्मविजयजी, पद्मविजयजी, साध्वी तत्वत्रयाश्रीजी, गोयमरत्नाश्रीजी व परमप्रज्ञाश्रीजी उपस्थित थे।
About The Author
Related Posts
Latest News
