राष्ट्रपति शासन ही समाधान!

प. बंगाल के जो हालात हैं, वे रातोंरात पैदा नहीं हुए हैं

राष्ट्रपति शासन ही समाधान!

कहीं बंगाल नब्बे के दशक का कश्मीर न बन जाए

वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 के विरोध में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और दक्षिण 24 परगना जैसे क्षेत्रों में जिस तरह हिंसा भड़की और हिंदुओं को निशाना बनाया गया, उससे तृणमूल कांग्रेस सरकार की विफलता और मंशा उजागर हो गई है। क्या राज्य सरकार के पास कोई खुफिया सूचना नहीं थी कि उपद्रवी एकजुट हो रहे हैं तथा पथराव, आगजनी और लूटमार करने के लिए साजिशें रच रहे हैं अथवा उसने जान-बूझकर उदासीनता बरती कि कहीं वोटबैंक नाराज न हो जाए? मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जब कांग्रेस के झंडे तले अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था, तब वे प. बंगाल में बांग्लादेशियों की घुसपैठ, हिंसा, अव्यवस्था, अराजकता और कुप्रबंधन के लिए वामपंथी दलों को आड़े हाथों लेती थीं। क्या आज वही सब दोहराया नहीं जा रहा है? बस फर्क इतना है कि अब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर खुद ममता बनर्जी बैठी हैं, जिन्होंने हालिया हिंसा के बाद अपनी सरकार की नाकामी स्वीकार करने के बजाय उसका ठीकरा बीएसएफ और केंद्रीय एजेंसियों पर फोड़ना शुरू कर दिया! ममता का इमामों के साथ एक बैठक में यह कहना कितना न्यायोचित है कि 'मुझे ऐसी खबरें मिली हैं, जिनमें मुर्शिदाबाद में अशांति के पीछे सीमापार से आए तत्त्वों की भूमिका का दावा किया गया है ... क्या सीमा की सुरक्षा में बीएसएफ की भूमिका नहीं है? राज्य सरकार अंतरराष्ट्रीय सीमा की सुरक्षा नहीं करती है। केंद्र सरकार को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए ...'? बेशक प. बंगाल में लाखों बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए हैं, जो राज्य की शांति व सुरक्षा के लिए खतरा बने हुए हैं। उन्होंने भारत-बांग्लादेश सीमा की भौगोलिक विषमताओं का फायदा उठाकर घुसपैठ की है और आबादी में घुलमिल गए हैं। सवाल है- तृणकां सरकार ने घुसपैठियों को नकेल डालने के लिए क्या किया? उनके पास फर्जी आधार कार्ड, राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र समेत कई दस्तावेज हैं, जो बगैर राजनीतिक आशीर्वाद के नहीं बन सकते। क्या ममता बनर्जी ध्रुवीकरण का वही पुराना दांव चलते हुए घुसपैठियों को अपने वोटबैंक की तरह इस्तेमाल नहीं कर रही हैं?

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आज प. बंगाल के जो हालात हैं, वे रातोंरात पैदा नहीं हुए हैं। सोशल मीडिया पर तो यह चर्चा है कि कहीं बंगाल नब्बे के दशक का कश्मीर न बन जाए। वहां वोटबैंक के लालच में कट्टरपंथियों, उपद्रवियों के प्रति जिस तरह ढीला रवैया बरता जा रहा है, उससे देश की सुरक्षा और अखंडता के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा हो सकती हैं। मुर्शिदाबाद से कई हिंदू परिवार मालदा और अन्य क्षेत्रों में पलायन करने को मजबूर हो गए हैं। उन्हें राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी है। ये लोग अपने ही देश में शरणार्थी बन गए हैं। जब राष्ट्रीय महिला आयोग का प्रतिनिधिमंडल उन शिविरों में रह रहीं महिलाओं से मिला तो उन्होंने अपनी जमीन पर बीएसएफ कैंप लगवाने का अनुरोध क्यों किया? क्या यह स्थानीय पुलिस और प्रशासन पर लोगों के अविश्वास को नहीं दर्शाता? प. बंगाल में हिंदुओं पर सुनियोजित हिंसा के कारण जो दयनीय हालात बने हैं और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आंखें मूंदे हुए हैं, उसको देखते हुए राज्य में तुरंत राष्ट्रपति शासन लगाना चाहिए। नेतागण आरोप-प्रत्यारोप में व्यस्त हैं। क्या इससे लोगों का जीवन सुरक्षित होगा? कभी-कभी लगता है कि केंद्र सरकार राष्ट्रपति शासन लागू करने से हिचकिचा रही है। उसे डर है कि कहीं उच्चतम न्यायालय फटकार लगाते हुए राष्ट्रपति शासन न हटा दे। अगर अब प. बंगाल में इसे लागू नहीं किया तो वहां से हिंदुओं के पलायन को नहीं रोका जा सकेगा। कश्मीर में वर्षों बाद कुछ शांति आई है, फिर भी वहां हमले पूरी तरह बंद नहीं हुए हैं। वहीं, प. बंगाल के हालात संकेत दे रहे हैं कि अभी ज्यादा देर नहीं हुई है। केंद्र सरकार थोड़ी दृढ़ता और इच्छाशक्ति दिखाए तो चीजें सुधर सकती हैं। उसने समय रहते सख्ती न बरती तो तृणकां का रवैया देश को बहुत महंगा पड़ सकता है। हिंदुओं को यूं ही मरने के लिए छोड़ देना सही नहीं है। फिर, यह सिलसिला किसी एक राज्य तक सीमित नहीं रहेगा। उपद्रवियों के हौसले ज्यादा बढ़ जाएं, उससे पहले ही प. बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाकर शांति स्थापित कर देनी चाहिए। इसके बगैर वहां न तो हिंदू सुरक्षित रहेंगे और न ही निष्पक्ष चुनाव संभव होंगे। अन्य राज्यों में भी बांग्लादेशियों और रोहिंग्या घुसपैठियों के खिलाफ अभियान चलाकर उन्हें स्वदेश भेजने का इंतज़ाम करना चाहिए। अन्यथा भविष्य में समस्याएं बढ़ती रहेंगी।

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