पानी का बंटवारा
पानी का बंटवारा
तमिलनाडु और कर्नाटक् में पानी के बंटवारे को लेकर आंदोलन खूब होते हैं, फिर चुनावी राजनीति भी आम है। कावेरी का उद्गम कर्नाटक के कोडगु जिले में है और यह कर्नाटक से होकर तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में बहती है। ७६५ किलोमीटर लंबी कावेरी कर्नाटक और तमिलनाडु की जीवन रेखा कही जाती है। दोनों राज्यों के बीच पानी के बंटवारे का मामला काफी संवेदनशील होने के कारण इसके बंटवारे के फैसले आसान भी नहीं होते। इसका अंदाजा सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद बरती गई एहतियात से आसानी से लगाया जा सकता है। फैसला सामने आते ही दोनों राज्यों की सरकारों ने एक-दूसरे की सीमा में जाने वाली बसों पर रोक लगा दी। अदालत का फैसला थो़डा कर्नाटक के पक्ष में है तो तमिलनाडु के लिए थो़डा निराशाजनक है। फिर भी फैसला स्वागत योग्य ही है, जिसे स्वीकार किया जाना चाहिए। क्योंकि किसी भी विवाद का कोई फैसला किसी को भी पूर्णत: संतुष्ट करने वाला नहीं हो सकता। अदालत ने तमिलनाडु के हिस्से का पानी थो़डा-सा घटाया जरूर है, लेकिन उसे नियमित रूप से पानी मिलते रहने की भी व्यवस्था की है। अदालत ने फैसले में कहा है कि केन्द्र कावेरी जल प्रबंधन बोर्ड का गठन करे और बोर्ड गठन के बाद यह सुनिश्चित करता रहे कि तमिलनाडु को उसके हिस्से का पानी बराबर मिलता रहे। फिर भी तमिलनाडु के राजनीतिज्ञों में कुछ असंतोष है और वे फैसले की पुनर्समीक्षा के लिए याचिका दायर करने की बात कर रहे हैं।यह कदम राजनीतिक अधिक प्रतीत होता है क्योंकि अदालत ने तमिलनाडु की ओर से दायर याचिका की सुनवाई के दौरान ही दी गई दलीलों के बाद फैसला सुनाया है तो इसमें पुनर्विचार की गुंजाइश कहीं बचती ही नहीं है। फिलहाल, इस फैसले पर कर्नाटक की सरकार ने संतोष व्यक्त किया है। शायद कांग्रेस की सत्तारू़ढ सरकार को लगता है कि चुनावी माहौल के बीच आए फैसले से उसे राजनीतिक लाभ मिल सकता है, मगर विडंबना यह भी है कि राज्य सरकार ने सुनवाई के दौरान अपना पक्ष रखते हुए दलील दी थी कि कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल बंटवारा १८९२ और १९२४ में मैसूर राज्य और मद्रास प्रेसिडेंसी के बीच हुए समझौतों पर आधारित है और चूंकि तब संविधान का वजूद नहीं था इसलिए अदालत को इस मामले में प़डने का अधिकार नहीं है। ताजा फैसले से केन्द्र के रुख को भी झटका लगा है। केन्द्र ने कावेरी जल प्रबंधन बोर्ड के गठन के तकाजे पर टालमटोल करते हुए कहा था कि अंतरराज्य जल विवाद अधिनियम १९५६ के तहत जल बंटवारे की योजना बनाना संसद के अधिकार क्षेत्र में है लेकिन अदालत ने न तो कर्नाटक की दलील को मान्यता दी और न ही केन्द्र की दलील को स्वीकार किया। अब उचित यही होगा कि केन्द्र, कर्नाटक और तमिलनाडु फैसले को स्वीकार कर उसके क्रियान्वयन पर ध्यान दें।