सोच हो सकारात्मक
सोच हो सकारात्मक
श्रीकांत पाराशर
समूह संपादक, दक्षिण भारत
बहुत से लोग यह भी कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति आज के समय में विरले ही होते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि सकारात्मक सोच अपनाने वाले ऐसे सुखी लोगों की भी कोई कमी नहीं है। हम जब तब अपने दैनंदिन जीवन में ऐसे लोगों से अनायास ही मिलते भी हैं, पलभर के लिए प्रभावित भी होते हैं, मन ही मन उनका व्यवहार, उनका स्वभाव हमें कुछ अच्छा भी लगता है किंतु हम उसे इग्नोर कर देते हैं। कारण, यहां हमारा अहंकार आड़े आ जाता है। हमें लगता है कि कोई और व्यक्ति हमसे बेहतर, हमसे अच्छा कैसे हो सकता है? हम उस व्यक्तित्व के प्रति आकर्षित होते हैं और मन कहता भी है कि हम ऐसे क्यों नहीं हो पाये? मन भीतर ही भीतर अफसोस महसूस करता है लेकिन हमारे कुटिल मन में इस सोच के समानांतर एक ईर्ष्याभाव जागृत होता है क्योंकि हम स्वयं वैसा नहीं बन सके, या वैसे नहीं हैं इसलिए हम उसके व्यक्तित्व को, उसकी खासियत को स्वीकार नहीं कर पाते। हमें उसकी सोच में कोई गुण दिखाई नहीं देता बल्कि हम स्वयं उसके संबंध में नकारात्मक सोचने लग जाते हैं।
सकारात्मक सोच बनाती है मित्र
सकारात्मक सोच मन को स्वस्थ रखती है क्योंकि सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति दूसरों की केवल खूबियों को देखता है, उसके गुणों पर ध्यान देता है, उसकी खामियों को नजरंदाज कर देता है। स्वाभाविक है कि ऐसा व्यक्ति समाज में सबको मित्र ही बनाता है। उसका विरोधी तो केवल कोई ईर्ष्यालु ही होगा। जो व्यक्ति सबमें गुण देखेगा, सबकी सराहना करेगा, उसकी बुराई भला कौन करेगा? स्वाभाविक है कि ऐसे व्यक्ति का समाज में आदर सत्कार होगा। जब किसी व्यक्ति को आदर सत्कार मिलेगा तो वह प्रसन्न होगा। जब प्रसन्न होगा तो स्वस्थ होगा। जो सदैव स्वस्थ मस्त रहेगा, उसका स्वभाव भी वैसा ही बन जाएगा। स्वस्थ मन में स्वस्थ विचार यानी सकारात्मक विचार जन्म लेते हैं और सकारात्मक विचार वाला व्यक्ति एक उत्तम चरित्र वाला आदर्श व्यक्तित्व बनकर उभरता है। इस प्रकार सकारात्मक सोच एक श्रृंखला की तरह व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होती है।
व्यक्ति के स्वभाव में जो गुण अवगुण आगे चलकर दिखाई देते हैं उनकी नींव दरअसल बचपन में ही पड़ जाती है। घर परिवार में जो वातावरण मिलता है उससे प्रारंभिक सोच निर्मित होती है। बच्चे के माता पिता, अन्य परिवारजन जैसा उस बालक के साथ अथवा परिवार के सदस्य परस्पर व्यवहार करते हैं उसका उस बालक मन पर अमिट प्रभाव पड़ता है। यदि वह परिवारजन के बीच ही छलकपट, ईर्ष्या, द्वेष, साजिश, षड़यंत्र, गालीगलौज, खींचतान, मारपीट यह सब देखता है तो ऐसा बालक आगे चलकर एक बड़ा समाजसुधारक बनेगा, इसकी अपेक्षा करना मूर्खता है। हां, कभी कभी कोई अपवाद निकल आता है परंतु जिसका लालन पालन नकारात्मकता से भरे माहौल में हो रहा हो, वह आगे चलकर एक आदर्श व्यक्तित्व का धनी बनकर उभरेगा, इसकी संभावनाएं नगण्य ही होती हैं।
संगत से प्रभावित होती है सोच
मनुष्य की सोच उसकी संगत से भी प्रभावित होती है। बचपन में, फिर स्कूल कालेज में कोई भी किस वातावरण में पला-बढा इसका उसकी सोच पर सीधा असर होता है। यदि किशोरावस्था या युवावस्था में अच्छे मित्र मिलें, जो जीवन में कुछ बनने का उद्देश्य लेकर चलते हैं, कुछ सीखने और उस सीख का इस सोसाइटी के लिए उपयोग करने का भाव रखते हैं, पढ लिखकर अपने माता-पिता, समाज और राष्ट्र के भले के लिए कुछ करना चाहते हैं व करने का प्रयास करते हैं, कोई अपने जीवन को मानवमात्र के भले के लिए समर्पित कर देना चाहते हैं या कोई अपने आत्मकल्याण के मार्ग पर बढना चाहते हैं तो ऐसे सेवाभावी, सत्कर्मी सकारात्मक सोच वाले कर्मयोगी मनुष्यों का व्यक्तित्व छिपाए नहीं छिपता। व्यक्ति की सोच उसकी शिक्षा व शिक्षकों से भी प्रभावित होती है।
विद्यार्थी सदैव काफी हद तक अपने चहेते शिक्षक या शिक्षकों का अनुकरण करता है। इसका यह मतलब नहीं कि सभी विद्यार्थी आगे चलकर शिक्षक का ही पेशा अपना लें, किंतु यह भी सत्य है कि शिक्षक का स्वभाव व चरित्र विद्यार्थी के व्यक्तित्व को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकता। चरित्रवान, विद्वान शिक्षक अपने शिष्य में अपने जैसे संस्कारों का संचार चाहे अनचाहे अवश्य करता है और उनका असर भी शिष्य के स्वभाव तथा आचरण में स्पष्ट झलकता है। शिक्षक के साथ साथ विद्यार्थी ने शिक्षा कैसी ग्रहण की, इस पर भी उसकी सोच निर्भर करती है। किताबी ज्ञान तो उसे उसकी अपनी आवश्यकता और चयनीत पाठ्यक्रम के अनुसार मिलता ही है, इसके अलावा विद्यार्थी स्वाध्याय कैसी पुस्तकों का करता है, उसकी रुचि महापुरुषों के जीवनचरित्र पढ़ने में है या मारकाट, सस्पेंस वाले उपन्यास पढने या आनलाइन मिलने वाले बहुत सारे नकारात्मकता से भरे कचरे को अपने दिमाग में सेव कर लेने में है, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। इसीलिये पुराने समय में अधिक ध्यान बचपन के समय दिया जाता था।
हालांकि माता पिता बचपन में ध्यान अब भी कम नहीं देते किंतु अब उनकी स्वयं की सोच भी बच्चे के प्रति स्पर्धात्मक ज्यादा होती है बनिस्पत सकारात्मक के। इसलिए वे उसे एक बड़ा चिकित्सक, इंजीनियर, मैनेजमेंट विशेषज्ञ तो बनाने के लिए तत्पर रहते हैं किंतु व्यवहारिक और चारित्रिक शिक्षा पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं। जब आगे चलकर शैक्षणिक योग्यता के बावजूद आवश्यकता महसूस होती है तो व्यक्तित्व विकास और चारित्रिक विकास के कोर्स करवा दिए जाते हैं, सेमिनार में शामिल कर देते हैं।
सुखी जीवन का मूल मंत्र है सकारात्मक सोच
अब हम आते हैं मूल मुद्दे पर। वह है सकारात्मक सोच हमारे जीवन में कितनी जरूरी है। मैं तो कहूंगा कि यदि हम जीवनभर सुख शांति से जीना चाहते हैं तो, प्रेम और आनंद की अनुभूति करना चाहते हैं तो सकारात्मक सोच को अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा बना लें। हालांकि नकारात्मकता से भरे लोग समय समय पर छोटे छोटे कई तरह के झटके आपको देंगे और उनसे उलझने को प्रेरित करेंगे ताकि आप भी जीवनभर यहीं उलझे रहें परंतु मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर आप विचलित हुए बिना अपनी राह पर चलते रहे तो कुछ वर्षों बाद आप देखेंगे कि जो आपके अवरोधक थे, वे अभी भी वहीं हैं और आप उनसे बहुत आगे निकल आए हैं। सकारात्मकता अपनाने का सबसे सरल तरीका यही है कि आप नकारात्मक सोच को अपने पास फटकने भी न दें। जब भी किसी की कोई खामी नजर आए, आपके साथ कोई अनापेक्षित व्यवहार हो तो उसे कड़वे घूंट की तरह पी जाएं, उसे नजरंदाज कर दें। किसी भी व्यक्ति के अनुचित व्यवहार से आहत होकर हम अपने दिमाग में उसके प्रति नफरत और द्वेष का कचरा इकट्ठा कर लेंगे तो वह हमारे दिमाग में बेचैनी बढाएगा। हम सुख की नींद सो नहीं सकेंगे। वह हमारे दिमाग की मेमोरी क्षमता का वह भाग बिना काम के भरा रखेगा जिसमें हम अच्छी अच्छी सकारात्मक उपयोगी बातें, विचार सेव कर सकते हैं।
विकट समय में हौसला प्रदान करती है
सकारात्मक सोच हमें कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हौसला प्रदान करती है। घर परिवार हो, अपना कार्यक्षेत्र हो, यदि हमने सब जगह यदि सकारात्मक सोच का हाथ पकड़े रखा तो वह आशा और विश्वास का संचार करती रहेगी और उसके सहारे हम विकट स्थितियों से भी बाहर आ सकेंगे। जो लोग किसी न किसी कारण सकारात्मक सोच से दूर हो जाते हैं, वे खुद ही अपने जीवन को संकट में डाल लेते हैं। यह कभी मत भूलिए कि दिमाग कभी खाली नहीं रहता। कहते भी हैं कि “खाली दिमाग, शैतान का घर।” यदि आपने दिमाग में सकारात्मक सोच को स्थान नहीं दिया तो बिना वक्त गंवाए वहां नकारात्मक सोच अपना कब्जा कर ही लेगी और फिर उसके परिणाम तो आपको पता ही होंगे, दुख, अशांति, शरीर मेंअसमय रोगों का आगमन। कभी कभी तो व्यक्ति अवसाद से भी घिर जाता है और जब अवसाद चरम पर पहुंच जाता है तो कभी कभी जीना भी मुश्किल कर देता है। इसलिए सकारात्मक सोच को हमेशा उचित अहमियत देनी चाहिए।