घोर उपेक्षा

भारत ने इस संबंध में अमेरिका से कोई सलाह मांगी भी नहीं है

घोर उपेक्षा

सीआरएस के शोधकर्ताओं को इस पहलू को ध्यान में रखना चाहिए था, जिसकी उन्होंने घोर उपेक्षा कर दी है

अमेरिकी संसद की एक शोध इकाई द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में यह दावा किया जाना कि 'भारत में इस साल लागू किए गए नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के प्रावधानों से भारतीय संविधान के कुछ अनुच्छेदों का उल्लंघन हो सकता है', अत्यंत हास्यास्पद है। सीएए भारतीय संविधान का उल्लंघन करता है या नहीं करता है, इसका फैसला करने के लिए हमारे देश में न्यायालय हैं। लिहाजा अमेरिका को इस मामले में किसी तरह की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। भारत ने इस संबंध में अमेरिका से कोई सलाह मांगी भी नहीं है। ऐसे में अमेरिकी संसद की इस कथित शोध इकाई की टिप्पणी कोई मायने नहीं रखती। इस इकाई के 'शोधकर्ता' यह क्यों भूल जाते हैं कि भारत में भारतीय संसद से बना कानून लागू होता है, न कि अमेरिकी संसद से बना कानून? 'कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस' (सीआरएस) की 'इन फोकस' रिपोर्ट ने यह दावा कर दिया कि सीएए के प्रमुख प्रावधानों से भारतीय संविधान के कुछ अनुच्छेदों का उल्लंघन हो सकता है, लेकिन इस रिपोर्ट के शोधकर्ता और लेखक उस समय कहां थे, जब पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे थे? वहां अब भी अत्याचार हो रहे हैं। क्या सीआरएस के शोधकर्ता ऐसी रिपोर्ट जारी करते हुए उक्त तीनों देशों की सरकारों को सलाह देने का साहस दिखाएंगे? पश्चिमी देशों के कथित थिंक टैंकों और शोध इकाइयों के साथ बड़ी समस्या यह है कि वे दूसरों को कोरे उपदेश देने में माहिर हैं। वे अपने देशों की सरकारों को ठोस सुझाव देकर उनका पालन करवाने में समर्थ नहीं हैं। अगर सीआरएस को लगता है कि भारत में सीएए लागू होने से कानून का उल्लंघन हो रहा है और यह समानता के सिद्धांतों के अनुकूल नहीं है तो उसे चाहिए कि वह अपने देश की सरकार को सुझाव दे कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के पीड़ित व प्रताड़ित अल्पसंख्यकों के लिए अपने दरवाजे खोल दे।

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अगर सीआरएस कोरे उपदेश के बजाय सच में पीड़ितों के लिए सहानुभूति रखती है तो उसे ऐसा सुझाव देने में विलंब नहीं करना चाहिए। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा अफगानिस्तान, इराक, सीरिया आदि देशों में कई ड्रोन हमले करने के आदेश देने के बावजूद 'शांति पुरुष' कहलाए और नोबेल पुरस्कार भी पा गए। अगर मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के हिंदू, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी समुदाय के लिए दरवाजे खोलने में कामयाब हो गए तो सच्चे मायनों में 'शांति पुरुष' कहलाएंगे। हां, उस स्थिति में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने की संभावना कम होगी। अमेरिका उक्त तीन देशों के अल्पसंख्यकों को ही नागरिकता क्यों दे, चूंकि इस पर तो उसे आपत्ति है? उसे चाहिए कि वह पूरी दुनिया के शरणार्थियों के लिए अपने द्वार खोल दे। इससे अमेरिका के लिए मानवाधिकारों की रक्षा करने में आसानी होगी। साथ ही सीआरएस को ऐसी रिपोर्ट तैयार करवाने में संसाधन खर्च नहीं करने होंगे। उसके शोधकर्ताओं और लेखकों के समय व श्रम की बचत होगी। भारत में नागरिकता देने के नियम (तुलनात्मक रूप से) काफी सरल हैं। इस देश ने हर तरह के भेदभाव से ऊपर उठकर प्रत्येक समुदाय के लोगों को नागरिकता दी है। जहां तक सीएए के तहत लोगों को नागरिकता देने का सवाल है तो उसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के प्रताड़ित अल्पसंख्यकों के 'संघर्ष' को थोड़ा कम करते हुए उन्हें कुछ राहत दी गई है। इससे पहले उन्हें वर्षों तक दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ते थे। उसके बावजूद नागरिकता को लेकर तस्वीर साफ नहीं होती थी। सीएए उन्हें राहत के साथ उम्मीद भी देगा। सीआरएस के शोधकर्ताओं को इस पहलू को ध्यान में रखना चाहिए था, जिसकी उन्होंने घोर उपेक्षा कर दी है।

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