सुधार के लिए हादसे का इंतजार!
सरकारी स्कूलों की हालत कैसी हो गई है?
कितने नेताओं के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते हैं?
राजस्थान के झालावाड़ जिले में एक सरकारी स्कूल में हुए हादसे के बाद सोशल मीडिया पर ऐसे कई स्कूलों की तस्वीरें वायरल हो रही हैं, जिनकी इमारतें जर्जर हो चुकी हैं। किसी की छत गिरने की आशंका है तो किसी की दीवारें ढहने का डर है। हादसों को न्योता दे रहीं इन इमारतों का सर्वेक्षण कराया जा रहा है। जो इमारतें असुरक्षित पाई जाएंगी, उन पर लाल रंग से निशान लगाकर उन्हें बंद किया जाएगा। अन्य राज्यों में भी सरकारी स्कूलों की इमारतों का मुद्दा चर्चा में है। सवाल है- यह कितने दिनों तक चर्चा में रहेगा? जैसे ही कोई नया मुद्दा आएगा, लोग इसे भूल जाएंगे। क्या वजह है कि हम कहीं सुधार पर सोच-विचार करने के लिए किसी हादसे का इंतजार करते हैं? अगर सरकारी स्कूलों की हालत की ओर समय रहते ध्यान दिया जाता तो झालावाड़ जिले में हुए हादसे को टाला जा सकता था। पिछले कुछ दशकों में सरकारी स्कूलों की जिस तरह घोर उपेक्षा की गई, उसके परिणाम शुभ नहीं होंगे। यह साफ दिखाई दे रहा है। चाहे इन स्कूलों की इमारतों का सवाल हो या पढ़ाई की गुणवत्ता का, अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद यह हालत है! ऐसा क्यों? नेतागण तो गांवों में वोट मांगने आते हैं। क्या वे अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजते हैं? कितने सरकारी अधिकारियों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते हैं? कितने सरकारी शिक्षकों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ने आते हैं? इन सवालों के जवाबों से पता चल जाएगा कि सरकारी स्कूलों की हालत कैसी हो गई है! गांवों में मुख्यत: गरीब, मजदूर और किसान के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। सरकारों को चाहिए कि वे इतना तो सुनिश्चित कर दें कि किसी बच्चे को वहां जान गंवानी न पड़े।
प्राय: लोग शिकायत करते हैं कि उन्होंने कई बार सरकारी अधिकारियों, विधायकों, सांसदों, मंत्रियों तक यह बात पहुंचाई कि स्कूल इमारत का एक हिस्सा या वह पूरी ही ठीक हालत में नहीं है, किसी समय कुछ भी हो सकता है, लेकिन उनकी बात अनसुनी कर दी गई। वे सोशल मीडिया पर स्कूल इमारत की तस्वीर डाल देते हैं। फिर भी कुछ नहीं होता। किसी स्कूल का दरवाजा खराब है। कोई स्कूल मूलभूत सुविधाओं को तरसता नजर आता है। वहां पढ़ाते समय शिक्षकों को डर लगता है कि क्या मालूम कब कोई ईंट, पत्थर, प्लास्टर आदि उनके सिर पर आ गिरे! करें तो क्या करें? ऐसे मामलों में सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो सरकारों की ही बनती है। वे हादसों का इंतजार न करें, तुरंत जरूरी कदम उठाएं। अगर लोगों द्वारा काफी शिकायतों के बावजूद कोई सुनवाई नहीं हो रही है तो वे आगे बढ़कर खुद जिम्मेदारी लें। हर घर से थोड़ा-थोड़ा आर्थिक सहयोग लें। शिक्षक भी सहयोग करें। ये स्कूल आपके हैं। इन्हें सिर्फ सरकारों और अधिकारियों के भरोसे न छोड़ें। अगर ज्यादा संसाधनों की जरूरत पड़े तो क्षेत्र में कुछ साल के लिए ब्याह-शादियों में होने वाली बड़ी धूमधाम के खर्चों में कटौती कर दें। जहां कम खर्च में काम चल सकता है, वहां कुछ मितव्ययता बरत लें। यह पूरी रकम स्कूलों की दशा सुधारने में लगाएं। इस प्रयोग को दो-तीन साल करके देखें, सरकारी स्कूलों की इमारतें चमक उठेंगी। इस तरह वहां अन्य सुविधाएं भी जुटाई जा सकती हैं। हमारे पूर्वजों ने एकजुट होकर आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी। हमने एकजुट होकर कोरोना महामारी को हरा दिया। एकता में बहुत बड़ी ताकत होती है। अगर लोग सरकारी स्कूलों के लिए ऐसी इच्छाशक्ति दिखाएंगे तो सरकारों को उनकी बात सुननी पड़ेगी।

