तपस्या करने वाला मनुष्य ही अध्यात्म में विश्वास करता है: आचार्यश्री प्रभाकर

'चातुर्मास काल में निराहार रहकर तप करना किसी आश्चर्य से कम नहीं'

तपस्या करने वाला मनुष्य ही अध्यात्म में विश्वास करता है: आचार्यश्री प्रभाकर

'अपनी जीभ को वश में करना इतना भी सरल नहीं होता'

बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के महालक्ष्मी लेआउट स्थित चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्यश्री प्रभाकरसूरीश्वरजी व साध्वीश्री तत्वत्रयाश्रीजी की निश्रा में आचार्यश्री ने अपने प्रवचन में कहा कि चातुर्मास काल में निराहार रहकर तप करना किसी आश्चर्य से कम नहीं। अपनी जीभ को वश में करना इतना भी सरल नहीं होता।

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जैन धर्म में सदा से तप का बहुत महत्व रहा है। छोटे बड़े हर उम्र के श्रावक आत्म निर्जरा के लक्ष्य के साथ स्वेच्छा से तपस्या को अंगीकार करते हैं। जब मनुष्य तप के माध्यम से साधना में लीन होता है, तो उसे अलौकिक लाभ प्राप्त होता है। 

जैसे-जैसे उसकी साधना बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे वह स्पष्ट रूप से इस लाभ को महसूस करने लगता है। इसका अनुभव अक्सर तपस्वी लोग करते रहते हैं। तप का अवलंबन करके ही मनुष्य में आंतरिक प्रसन्नता और आनंद की अनुभूति होती है, जो इस संसार की किसी भी वस्तु में नहीं मिल सकती, क्योंकि धर्म ग्रंथों में इसकी पुष्टि होती है। 

संतश्री ने कहा कि तपस्या करने वाला मनुष्य ही अध्यात्म में विश्वास करता है और अध्यात्म ही हमें अच्छे कर्म की ओर ले जाता है। इससे हमें निस्वार्थ भाव से कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। निस्वार्थ कर्म ही मनुष्य को अपने लक्ष्य अर्थात ईश्वर की प्राप्ति करा सकता है। 

कर्म शरीर, वाणी और मन से किए जाते हैं। प्रत्येक कर्म का नियत परिणाम होता है। परिणाम कारण में वैसे ही निहित रहता है, जैसे बीज में वृक्ष। प्रत्येक कर्म का हमारे ऊपर तुरंत परिणाम होता है। कोई इसे स्वीकार करे या न करे। 

आचार्यश्री ने कहा की तपस्या की शक्ति के सहारे हम अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और स्वयं को मजबूत बना सकते हैं। ईर्ष्या, लोभ और मोह जैसी कमजोरियों से छुटकारा पा सकते हैं और अपने मन को अपने वश में रख सकते हैं। तपस्या के माध्यम से ही हम अपनी अंतरात्मा को शुद्ध कर सकते हैं। तपस्या का फल हमें इस लोक में तो मिलता ही है, इसके साथ-साथ हमें परलोक में भी इसका फल प्राप्त होता है। इच्छाएं आज तक कभी भी किसी की पूरी नहीं हुईं और जब तक हम इच्छाओं के दास हैं तब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकते। 

उन्होंने कहा कि स्वर्ग के देवों के पास तप करने की शक्ति नहीं है, वे चाह कर भी तप को धारण नहीं कर पाते हैं। मनुष्य तप पूर्वक कर्मों के बज्र शिखर भी नष्ट कर देता है। स्वाध्याय और ध्यान को उत्कृष्ट तप कहा गया है। ज्ञान और ध्यान के बिना मुक्ति संभव ही नहीं है। 

ट्रस्ट के नरेश बंबोरी ने 21 दिनों की तपस्या करने वाली मीनाबाई दक की अनुमोदना की। सभा में मुनिश्री महापद्मविजयजी, पद्मविजयजी, साध्वी तत्वत्रयाश्रीजी, गोयमरत्नाश्रीजी व परमप्रज्ञाश्रीजी उपस्थित थे।

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