उसकी एक झलक के लिए मैं अपनी चाल धीमी कर लेता था

पढ़िए एक कहानी

उसकी एक झलक के लिए मैं अपनी चाल धीमी कर लेता था

'इस बार मैं अपनी चाल धीमी नहीं करूँगा'

हममें से हर एक की ज़िंदगी में कोई ऐसा लम्हा ज़रूर आता है, जब बाज़ार गए हों, कोई ख़ास चीज़ पसंद आई हो, लेकिन उसे ख़रीद नहीं सके।

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यूं तो मुझे ख़रीदारी का ज़्यादा शौक़ नहीं है। हाँ, एक चीज़ ऐसी है, जिसे मैं ख़रीद नहीं पाया। वह कोई महँगा कपड़ा, गाड़ी, बँगला वग़ैरह नहीं है। वह है एक किताब।

जनवरी या फ़रवरी 2003 की बात है। मैं किसी काम से नवलगढ़ गया तो मेरी नज़र एक दुकान के कोने में रखी मोटी-सी किताब पर पड़ी।

मैंने सोचा, ‘इतनी मोटी किताब किस विषय की है? इसे तो कोई महाज्ञानी ही पढ़ सकता है!’

मैंने दुकानदार को देखा तो पता नहीं क्यों, वह मुझे बड़ा ग़ुस्सैल आदमी मालूम हुआ। एक बार तो सोचा कि चलकर इससे किताब की कीमत पूछूँ। फिर यह सोचकर नहीं गया कि अगर पूछूँगा तो इतने सारे ग्राहकों के सामने कहेगा- ‘बहुत महँगी है, क्या करेगा इसे लेकर? तुझसे ज़्यादा तो इस किताब में बोझ है!’

मैं अपने रास्ते चला गया। फिर तो जब कभी उस दुकान के सामने से गुज़रने का मौक़ा मिलता, मैं अपनी चाल धीमी कर लेता। वह किताब उसी कोने में रखी दिखती और दुकानदार ग्राहकों की भीड़ में व्यस्त रहता।

दीपावली से दो-चार दिन पहले की बात रही होगी। मैं फिर नवलगढ़ गया। आज मिठाई, बर्तन, कपड़े आदि की दुकानों पर भारी भीड़ थी, जबकि किताबों की दुकानों पर नाममात्र के ग्राहक थे।

मैंने अपनी चाल धीमी की, वह किताब उसी कोने में रखी थी! आज दुकान पर एक युवक था, जो शायद दुकानदार का बेटा होगा।

मैं फ़ौरन दुकान के दरवाज़े पर जा पहुँचा। पहले तो जयशंकर प्रसाद का नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ ख़रीदा। फिर झिझकते हुए, कोने में रखी उस किताब के बारे में पूछा।

युवक ने कहा, ‘अरे! यह लोगे क्या?’

मैंने कहा, ‘इतनी मोटी किताब किस विषय की है?’

मेरा कहना था कि उस युवक ने किताब निकालकर सामने रख दी। वह वेबस्टर का विख्यात शब्दकोश था। मैंने उसे हाथ में लेकर देखा। ऐसा लग रहा था कि मैं दुनिया में पहली बार किसी किताब को छू रहा हूँ। उसकी छपाई बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी।

किताब को उठाकर देखा तो बहुत भारी लगी। इतनी भारी कि उससे तीन या चार किलो आम तोल लें!

मैंने क़ीमत पूछी, जो 1,500 रुपए से कुछ ज़्यादा थी। इतने रुपए मेरे पास नहीं थे, इसलिए यह कहकर लौट गया कि दीपावली बाद ले जाऊँगा।

युवक ने कहा, ‘ठीक है, तब ले लेना।’

आज जब ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ तो उस घटना को क़रीब 19 साल हो चुके हैं। अब मेरे पास हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत आदि के कई दर्जन शब्दकोश हैं, लेकिन उस किताब को ख़रीदने की जो चाह थी, वह पूरी नहीं हो सकी।

आज मैं उसे ख़रीदने में सक्षम हूँ, लेकिन चाहता हूँ कि उसी दुकान से और उसी किताब को खरीदूँ, जिसकी एक झलक पाने के लिए अपनी चाल धीमी कर लेता था।

अब तो एक तरह से गाँव ही छूट गया। शहर के पिंजरेनुमा मकानों से बाहर निकलकर खुली हवाओं में साँस लिए मुद्दत हो गई।

अगली बार जब गाँव जाऊँगा तो उसी दुकान के सामने से गुज़रूँगा। मुझे उम्मीद है, वह किताब उसी कोने में रखी है। इस बार मैं अपनी चाल धीमी नहीं करूँगा।

.. राजीव शर्मा ..

कोलसिया, झुंझुनूं, राजस्थान

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