दूर की कौड़ी
अमेरिका के 11 प्रभावशाली सांसदों के एक समूह ने बाइडन प्रशासन से किया खास आग्रह
अमेरिका आधा युद्ध उसी समय जीत लेता, जब 9/11 के बाद पाकिस्तान पर हमला करता
अमेरिका के 11 प्रभावशाली सांसदों के एक समूह द्वारा बाइडन प्रशासन से यह आग्रह किया जाना कि 'जब तक पाकिस्तान संवैधानिक व्यवस्था बहाल नहीं करता और स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव नहीं कराता, तब तक उसे भविष्य में दी जाने वाली सहायता रोक दी जाए' - के लिए यही कहा जा सकता है- देर आयद, दुरुस्त आयद! लेकिन बड़ा सवाल है- क्या बाइडन प्रशासन ऐसा आग्रह स्वीकार करेगा? अमेरिका में सत्ता डेमोक्रेटिक की रही हो या रिपब्लिकन की, उनकी मूलभूत नीतियों में खास फर्क नहीं होता है। यूं तो अमेरिका मानवाधिकार, उदारवाद, लोकतंत्र ... की स्थापना के लिए बहुत सुंदर उपदेश देता है, लेकिन उसने धरातल पर जो कुछ किया, उससे इन्हें बहुत नुकसान पहुंचा है। उसने 9/11 के बाद 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' के नाम पर इराक और अफगानिस्तान की ईंट से ईंट बजा दी, लेकिन उसका अपराधी ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में छुपा मिला। वही पाकिस्तान, जिसे अमेरिका दिल खोलकर आर्थिक और सैन्य सहायता देता है। उसका तर्क है कि इससे उसे 'आतंकवाद' से लड़ने में मदद मिलेगी! बिल्ली भी कहीं दूध की रखवाली करती है? अमेरिका ने जिन घातक हथियारों का बहाना बनाकर इराक पर हमला बोला था, वहां से खाली हाथ लौटा। वहां आईएसआईएस जैसा खूंखार आतंकवादी संगठन उसकी नाक के नीचे पैदा हो गया। वह अल-कायदा को जड़ से उखाड़ने के लिए अफगानिस्तान की खाक छानता रहा, लेकिन आखिरकार पाकिस्तान के एब्टाबाद में लादेन का खात्मा हुआ। इस तरह अमेरिका ग़लत जगह युद्ध लड़ता रहा। उसके इतने वर्षों तक अफगानिस्तान में रहने के बावजूद वहां हालात में कोई खास तब्दीली नहीं आई। इस बीच उसने पाक के थल और वायु मार्ग का उपयोग किया। पाक-अफगान सरहदी इलाकों में खूब ड्रोन हमले किए। वह आधा युद्ध उसी समय जीत लेता, जब 9/11 के बाद या तो पाकिस्तान पर हमला करता या उसे मिलने वाली आर्थिक व सैन्य सहायता पूरी तरह बंद कर देता।
आज अमेरिका के 'प्रभावशाली सांसद' जब अपने देश की सरकार से पाकिस्तान को मिलने वाली सहायता पर ताला लगाने की मांग कर रहे हैं तो उनका यह कदम हास्यास्पद भी लगता है। क्या वे नहीं जानते कि अमेरिका वह देश है, जो पाकिस्तान में हुए हर सैन्य तख्ता-पलट की हिमायत में खड़ा हुआ था। चाहे जनरल अयूब खान का दौर रहा हो या ज़िया-उल हक का या फिर जनरल परवेज मुशर्रफ का, इन तानाशाहों पर अमेरिका ने अपना खजाना खूब लुटाया था। ज़िया-उल हक ने तो 90 दिनों में चुनाव कराने का वादा किया था, लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री को फंदे पर लटका दिया और एक दशक से ज्यादा अवधि तक अवाम की छाती पर मूंग दलते रहे। कारगिल युद्ध में बुरी तरह शिकस्त खा चुके जनरल मुशर्रफ की साख रसातल में जा चुकी थी, लेकिन मुल्क पर उनकी पकड़ को मजबूत बनाने के लिए अमेरिका ही संसाधन देता रहा। ये तानाशाह अमेरिका के सामने कोई शक्ति नहीं रखते थे। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति एक आदेश से उन्हें कुर्सी से नीचे उतार सकते थे, लेकिन वे स्वार्थ सिद्धि के लिए उनके मददगार बनकर खड़े रहे। क्या अमेरिका आज पाकिस्तान में स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की पैरवी करेगा? हां, करेगा, लेकिन सिर्फ बयानबाजी की हद तक। यूं भी पाकिस्तान में 'स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव' दूर की कौड़ी है। इसका नारा खूब लगाया जाता है, जबकि हकीकत में हर चुनाव धांधली और फौज की जोर-आजमाइश के बिना नहीं होता। पाक में साल 1970 के आम चुनाव में 'हस्तक्षेप' कम हुआ था, लेकिन उसके बाद यह पड़ोसी देश दो हिस्सों में टूट गया। अमेरिका के उक्त सांसदों ने जो मुद्दा उठाया है, वे उस पर मजबूती से डटे रहें। वे बाइडन प्रशासन पर दबाव डालें। साथ ही पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों, बढ़ते आतंकवाद के मुद्दे को लेकर भी मुखर रहें। अगर वे पाक को दी जाने वाली सहायता में कटौती ही करवा पाए तो भी यह उनकी बड़ी कामयाबी होगी।