धरती की पुकार सुनें

जोशीमठ को बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब और औली का प्रवेश द्वार कहा जाता है

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अपने घोंसले से बिछड़ने का दर्द तो पंछियों को भी होता है, मनुष्य तो मनुष्य है

उत्तराखंड के जोशीमठ में घरों, सड़कों तथा खेतों में बड़ी-बड़ी दरारें आना चिंता का विषय है। इससे लोगों में घबराहट है। भूगर्भीय हलचल के कारण जोशीमठ का सुकून गायब हो गया है। कई तरह की आशंकाएं जन्म ले रही हैं। कड़ाके की सर्दी में भी लोग बाहर रात बिताने को मजबूर हैं। क्या पता कब ये दरारें भारी मुसीबत लेकर आ जाएं! लोगों को अपने भविष्य की चिंता है। क्या वे अपने उन घरों में रह सकेंगे, जहां अब तक रहते आए थे? 

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जोशीमठ को बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब और औली का प्रवेश द्वार कहा जाता है। कभी आदि गुरु शंकराचार्य ने यहां तपस्या की थी। यह आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। हालात के मद्देनजर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने जो फुर्ती दिखाई, वह सराहनीय है। यहां 600 परिवारों को तत्काल अन्यत्र भेजे जाने का आदेश दे दिया। अगर आदेश नहीं दिया जाता और कोई घटना हो जाती तो सरकार को जवाब देना पड़ता। 

प्रशासन की जिम्मेदारी है कि लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाए और इनके लिए जरूरी इंतजाम करे। हमें धरती के संकेतों को समझना होगा कि वह क्या कहना चाहती है। क्या ये दरारें प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन और विभिन्न परियोजनाओं के फलस्वरूप आई हैं या इसकी कोई और वजह है? वैज्ञानिकों को इसका अध्ययन कर असल वजह बतानी चाहिए, ताकि उनके अनुभवों का भविष्य में भी लाभ हो, ऐसी स्थिति को पैदा होने से रोका जाए। 

पिछले एक दशक में उत्तराखंड में कई प्राकृतिक संकट आए हैं। बाढ़, भू-स्खलन ने लोगों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। जून 2013 में केदारनाथ में आई आपदा को याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

हमें इन संकेतों की ओर गंभीरता से ध्यान देना होगा। भूगर्भीय हलचल, बाढ़, भूकंप, भू-स्खलन आदि से मकानों को भारी नुकसान होता है। एक परिवार अपने जीवनभर की कमाई खर्च कर आशियाना बनाता है। जब उसमें दरारें आने लगें और न चाहते हुए भी उसे छोड़ना पड़े तो यह बहुत ही पीड़ादायक होता है। अपने घोंसले से बिछड़ने का दर्द तो पंछियों को भी होता है, मनुष्य तो मनुष्य है! 

निस्संदेह कई प्राकृतिक संकट ऐसे होते हैं, जिन्हें बहुत कोशिशों के बाद भी रोकना संभव नहीं है। मनुष्य उनसे अपना बचाव ही कर सकता है। हमारे वैज्ञानिक समुदाय को ऐसे मकान बनाने की तकनीक विकसित करने पर ध्यान देना होगा, जिन पर ऐसे संकट का न्यूनतम प्रभाव हो। पश्चिमी देशों में ऐसी पहल खूब लोकप्रिय हो रही है। इसके तहत धातुओं और कई पदार्थों से मकान बनाए जाते हैं, जिन पर सर्दी, गर्मी, बरसात का न्यूनतम प्रभाव होता है। वे भूकंप से सुरक्षित होते हैं। अगर जरूरत पड़े तो इन मकानों को खोलकर अन्यत्र भी ले जाया जा सकता है। 

वैज्ञानिक समुदाय को इनमें और तकनीकी सुधार करते हुए भारतीय जलवायु के अनुकूल ढालना होगा। शुरुआत में यह कार्य असंभव या बहुत मुश्किल जरूर लग सकता है, लेकिन अगर हम ठान लें तो इस समस्या का समाधान तलाश सकते हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने न्यूनतम समय में कोरोनारोधी वैक्सीन बनाकर दुनिया से अपनी प्रतिभा और परिश्रम का लोहा मनवाया है। अगर वे इस संकट को एक चुनौती के तौर पर लें तो इसका हल भी जरूर निकाल लेंगे। हमें भविष्य के लिए खुद को तैयार करना होगा। बेतरतीब बसावट को संतुलित एवं नियमित करना होगा। 

जिस तरह आबादी बढ़ रही है, उससे तो तय है कि कोई ठोस समाधान ढूंढ़ना ही होगा। अन्यथा भविष्य में बड़े मुश्किल हालात हो सकते हैं। धरती मां की पुकार अनसुनी करने से बचना होगा। जलवायु परिवर्तन, अतिदोहन, प्रदूषण को गंभीरता से लेना होगा। अपनी जीवनशैली को उस स्वरूप में ढालना होगा, जो इस सदी के अनुकूल हो। इसकी उपेक्षा करना सबको महंगा पड़ सकता है।

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