धर्मशाला नहीं यह देश

कुछ लोग घुसपैठियों के पक्ष में बहुत अजीब तर्क देते हैं

धर्मशाला नहीं यह देश

भारत सबको शरण देने के लिए बाध्य नहीं है

उच्चतम न्यायालय द्वारा एक मामले की सुनवाई के दौरान की गई यह टिप्पणी कि 'भारत कोई धर्मशाला नहीं है, जहां हम दुनियाभर से आए विदेशी नागरिकों का स्वागत कर सकते हैं',  कानूनी दृष्टिकोण से तो महत्त्वपूर्ण है ही, इसे विदेशी नागरिकों को आश्रय और नागरिकता देने के संबंध में एक नज़ीर भी समझना चाहिए। बेशक भारत कोई धर्मशाला नहीं है कि दुनियाभर से लोग अपनी मर्जी से यहां आएं और रहें। धर्मशालाओं में रुकने के भी कुछ नियम होते हैं। लोगों को पहचान पत्र दिखाना होता है, कितने लोग हैं, कब तक रुकेंगे, कब कमरा खाली करेंगे ... जैसे सवालों के जवाब देने होते हैं। अगर किसी व्यक्ति के रुकने से शांति, व्यवस्था और सद्भाव बिगड़ने का खतरा होता है तो उसे तुरंत बाहर निकाल दिया जाता है। देश की संप्रभुता और सुरक्षा के लिए जरूरी है कि विदेशी नागरिकों की घुसपैठ एवं अवैध निवास के मामलों में सरकारें सख्ती से पेश आएं। हाल में कई राज्यों में अवैध बांग्लादेशी पकड़े गए थे। जब कभी इनके खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की जाती है तो ऐसे कथित बुद्धिजीवी सक्रिय हो जाते हैं, जो घुसपैठियों को आवास, भोजन और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए सरकार पर दबाव डालते हैं। वे न्यायालय चले जाते हैं। देश के आम नागरिक को सुविधाएं मिलें या न मिलें, वे घुसपैठियों का कल्याण सुनिश्चित करना चाहते हैं। इससे हम उन लोगों को क्या संदेश देते हैं, जो बांग्लादेश, म्यांमार जैसे देशों से भारत में घुसपैठ कर बसने की योजना बना रहे हैं? उन्हें तो यही लगेगा कि भारत में घुसपैठ करने में कोई खतरा नहीं है, उधर मौज ही मौज है।

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कुछ लोग घुसपैठियों के पक्ष में बहुत अजीब तर्क देते हैं कि 'इन सरहदों में क्या रखा है, हमें तो सबके लिए बड़ा दिल रखना चाहिए, हमारा तो इतिहास ही सबको शरण देने और सबका स्वागत करने का रहा है...।' क्या इसी आधार पर अमेरिका हमारे लिए दरवाजे खोलेगा? क्या भारतीय नागरिकों को बिना वीजा, पासपोर्ट के ब्रिटेन में प्रवेश करने की अनुमति होगी? क्या कोई भारतीय पर्यटक अपनी मर्जी के मुताबिक जर्मनी में रह सकता है? इन सबका एक ही जवाब है- 'नहीं'। जब दुनिया के अन्य देश अपने नियम-कानूनों को ध्यान में रखते हुए विदेशी नागरिकों को प्रवेश और रहने की अनुमति देने या न देने का फैसला लेते हैं तो हम क्यों न लें? हजार साल पहले दुनिया कुछ और थी, आज कुछ और है। इक्कीसवीं सदी में भावनात्मक अपीलों के साथ यह तर्क काम नहीं कर सकता कि जिसकी मर्जी हो, वह भारत में प्रवेश करे और जब तक उसका मन करे, यहां रहे। हमारे देश की आबादी 140 करोड़ को पार कर चुकी है। यहां संसाधन सीमित हैं। नौकरियों के लिए संघर्ष की स्थिति है। शहरों में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। हर साल गर्मियों में पेयजल संकट गहराता है। बसों, ट्रेनों में भीड़ ही भीड़ दिखाई देती है। सरकारी अस्पतालों पर भारी दबाव है। कई जगह तो मरीजों को बेड तक नहीं मिल रहे। क्या इसके बावजूद घुसपैठियों पर नरमी दिखानी चाहिए? उच्चतम न्यायालय ने भी कह दिया है, 'क्या भारत दुनियाभर से आए शरणार्थियों की मेजबानी करेगा? हम 140 करोड़ लोगों को लेकर जूझ रहे हैं ...।' जब अपने नागरिकों को पर्याप्त सुविधाएं नहीं मिल रही हैं तो विदेशी नागरिकों को कहां से दे पाएंगे? इससे संसाधनों पर अधिकार को लेकर टकराव पैदा हो सकता है। अब भारत सरकार को सख्ती दिखानी होगी। देश में जो भी लोग अवैध तरीके से रह रहे हैं, उन्हें बाहर निकाला जाए। घुसपैठियों को हतोत्साहित करने के लिए कुछ असरदार कदम उठाने होंगे। भारत सबको शरण देने के लिए बाध्य नहीं है।

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