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एसआईआर बहुत जरूरी है

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आज देश में 99 करोड़ से ज्यादा मतदाता हैं

विपक्ष के एक सांसद ने लोकसभा में एसआईआर और ईवीएम के बारे में जो सवाल उठाए हैं, वे नए नहीं हैं। कुछ राजनेताओं को एसआईआर से क्या समस्या है? क्या मतदाता सूची को शुद्ध नहीं करना चाहिए और जैसा चल रहा है, वैसा भविष्य में भी चलता रहना चाहिए? लोग समय-समय पर अपने दस्तावेज बनवाते हैं; पुराने दस्तावेजों को ठीक करवाते हैं; मकान, दुकान, फर्नीचर को दुरुस्त करवाते हैं; मोबाइल फोन में ऐप अपडेट करते हैं ... क्या इस देश के लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए मतदाता सूची को ठीक नहीं करना चाहिए? इन दिनों सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो में जो राजनेता एसआईआर की बुराई करते दिखाई दे रहे हैं, वे भी जानते हैं कि यह प्रक्रिया बहुत जरूरी है। वोटबैंक की राजनीति के लिए क्या-क्या नहीं करना पड़ता! बिहार विधानसभा चुनाव में एसआईआर के खिलाफ माहौल बनाया गया था। महागठबंधन के नेताओं ने 'वोटचोरी', 'लोकतंत्र का खात्मा' जैसे मुद्दों को हवा दी थी, जिन्हें तालियां खूब मिलीं, बस उतने वोट नहीं मिले। अब कोई भी राजनेता यह न समझे कि जनता को उससे कम जानकारी है। आज सबके पास मोबाइल फोन है। किस पार्टी ने कब, कौनसे वादे किए थे और क्या कारनामे किए थे - यह आसानी से मालूम किया जा सकता है। पिछले दशकभर में चुनावी हार के बाद ईवीएम को जिम्मेदार ठहराने का चलन बहुत देखा गया है। अगर जीत गए तो यह शीर्ष नेतृत्व का कमाल है, अगर हार गए तो ईवीएम खराब है! खुद की गलतियों पर पर्दा डालने का यह अच्छा बहाना है। कुछ राजनेता इससे भी आगे बढ़कर यह मांग करते हैं कि मतपत्रों से चुनाव कराएं।

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उनके 'समर्थक' भी हां में हां मिलाते हुए कहते हैं कि मतपत्रों का दौर आ जाएगा तो सारे झगड़े ही मिट जाएंगे। नागरिकों, खासकर युवाओं को मालूम होना चाहिए कि मतपत्रों के जमाने में चुनावी विवाद कम नहीं थे। अगर वही व्यवस्था वापस लागू कर दी जाए तो उससे झगड़े कम नहीं होंगे, बल्कि कई गुणा बढ़ेंगे। ज्यादा दूर न जाएं, इंटरनेट के जरिए अस्सी और नब्बे के दशक में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएं पढ़ लें। उस जमाने में कई बूथों पर कब्जा कर मतपत्रों पर फर्जी ठप्पे लगा दिए जाते थे। जहां कार्यकर्ता भिड़ते, वहां मतपत्र या पेटी पर धावा बोला जाता था। कहीं मतपत्र फाड़ दिया जाता, कहीं पेटी को ही उड़ा ले जाते थे। अगर यह संभव नहीं होता तो पेटी में बाल्टी भरकर पानी डाल देते थे। अगर यह भी न होता तो मतगणना के दौरान जरूर हंगामा होता था। किसी मतपत्र पर ठप्पा जरा-सा इधर-उधर लगा कि बखेड़ा खड़ा हो जाता था। ऐसे मतपत्र एक नहीं, अनेक होते थे। इस झगड़े में मतगणना कर रहा कर्मचारी पिसता था। उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाए जाते थे, भीड़ हंगामा करने लगती थी। अगर किसी जगह मतपत्रों और डाले गए कुल वोटों का आंकड़ा नहीं मिलता था तो 'वोटचोरी' के आरोप लगते थे। हर मतगणना केंद्र पर कई मतपत्र इस वजह से खारिज करने पड़ते थे, क्योंकि ठप्पा सही जगह नहीं लगा था। जो उम्मीदवार हारता, वह शिकायत करता था कि 'मैं तो जीत रहा था, बस मतपत्रों में गड़बड़ हो गई, मेरे वोट चोरी हो गए।' ऐसे मामले अदालतों में जाते थे। अब तो मतगणना वाले दिन दोपहर तक तस्वीर साफ हो जाती है। अगर कुछ सीटों पर विवाद की स्थिति होती है तो ईवीएम से गणना में ज्यादा समय नहीं लगता। पहले, मतपत्रों की गणना में ही कई दिन लग जाते थे। यह वो दौर था, जब भारत में कुल मतदाता 60 करोड़ से कम थे। आज 99 करोड़ से ज्यादा हैं। ऐसे में मतपत्रों से चुनाव कराने की मांग कितनी उचित है? नेतागण विवेक एवं बुद्धिपूर्वक विचार करने के बाद कोई मुद्दा उठाएं। कुछ राजनीतिक परिपक्वता दिखाएं।

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