सद्भावना के बिना धर्म-अध्यात्म का विकास संभव नहीं: आचार्यश्री विमलसागरसूरी
आचार्यश्री ने उज्जीनकुंटे में श्रद्धालुओं काे संबाेधित किया

सद्भावना धर्म की पहली सीढ़ी है
हिरियूर/दक्षिण भारत। बेंगलूरु की ओर विहाररत आचार्यश्री विमलसागरसूरीश्वरजी ने बुधवार काे उज्जीनकुंटे में श्रद्धालुओं काे संबाेधित करते हुए कहा कि आपसी सद्भावना के कम हाेने से मानवता कलंकित हाेती है, जीवन काे सुकून और शांति नहीं मिलती, दुर्भावना के कारण मन में द्वेषभाव उत्पन्न हाेता है, ये सब जीवन की उन्नति के लिए बाधक तत्व हैं, इसीलिए सर्वप्रथम आपसी सद्भावना का विकास हाेना चाहिए।
उन्होंने कहा कि धर्म-अध्यात्म की बाताें का क्रम उसके बाद आता है। साधु-संताें और प्रबुद्धजनाें काे, लाेगाें में आपसी सद्भावना बढ़ाने का महत्त्वपूर्ण कार्य करना चाहिए। जाे लाेगाें काे बांटने का काम करते हैं, वे धर्म और मानवता काे कलंकित करते हैं। आने वाला समय इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। दुर्भावना से भरे मन काे शांति कभी नहीं मिलती।आचार्यश्री ने कहा कि सद्भावना धर्म की पहली सीढ़ी है। जाे अपने मन काे सद्भावनाओं से ओतप्राेत बनाते हैं, वे ही सच्चे अर्थाें में धार्मिक बन सकते हैं। दुर्भावना ताे अधर्म का प्रतीक है। जाे व्यक्ति सभी के प्रति सद्भावना का विकास नहीं कर सकता, वह साधना-आराधना की याेग्यता भी प्राप्त नहीं कर सकता। धर्म सिर्फ पूजा-पाठ, विधि अनुष्ठान, प्रार्थना आदि का ही विषय नहीं है, बल्कि धर्मतत्त्व ताे मन की पवित्रता का स्वरूप है।
आधुनिक युग में जाति, पंथ, धर्म, संप्रदाय, प्रान्त, भाषा और राजनीति काे लेकर मनुष्य बंट गया है। सभी में परस्पर दुर्भावना बढ़ रही है। सद्भाव और विश्वास कम हुआ है। इसे धार्मिक-आध्यात्मिक विकास नहीं कहा जा सकता। यह पतन और अवनति की निशानी है।
प्रवचन के दाैरान कर्नाटक के याेजना मंत्री जी. सुधाकर ने विशेष रूप से उपस्थित हाेकर आचार्य विमलसागरसूरीश्वरजी और गणि पद्मविमलसागरजी के दर्शन कर आशीर्वाद ग्रहण किया। इस अवसर पर कर्नाटक में जैन साधुओं की पदयात्रा के दाैरान आवास व विश्राम के लिए सरकारी स्कूलाें काे निर्देश मिलें, साधु-संताें की सुरक्षा के लिए सरकार ध्यान दे और गाैशालाओं के लिए सरकार जमीन दे, ऐसे अनेक विषयाें पर चर्चा हुई। मंत्री सुधाकर ने अपनी ओर से समाज काे यथासंभव सहयाेग देने का वचन दिया। समाज की ओर से उनका सम्मान किया गया।
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