बांग्लादेश में बलिदान भुलाने की साजिश!

बांग्लादेश के निर्माण के लिए सिर्फ बांग्लादेशियों ने बलिदान नहीं दिए थे

बांग्लादेश में बलिदान भुलाने की साजिश!

वहां कई कट्टरपंथी संगठनों की पौ-बारह हो गई है

बांग्लादेश के एक महत्त्वपूर्ण संगठन की छात्र शाखा के मुखपत्र में वर्ष 1971 के मुक्ति संग्राम के बारे में की गई टिप्पणी अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। यह कहना कि 'उस युद्ध में कुछ ... बिना सोचे-समझे कूद गए थे और यह नहीं सोचा कि इसके क्या नतीजे होंगे ... उनकी दूरदर्शिता की कमी की वजह से युद्ध हुआ', बांग्लादेश में तेजी से जड़ें जमा रहे उस कट्टरपंथ को दर्शाता है, जो इसके शहीदों के लहू का अपमान कर रहा है। याद रखें, बांग्लादेश के निर्माण के लिए सिर्फ बांग्लादेशियों ने बलिदान नहीं दिए थे। अगर मुक्ति संग्राम के साथ भारतीय सैनिकों के संघर्ष, त्याग और बलिदान नहीं जुड़े होते तो बांग्लादेश किसी सूरत में नहीं बनता। अपने राष्ट्र के निर्माताओं, वीरों और बलिदानियों के बारे में ऐसी टिप्पणी करना कृतघ्नता की घोर पराकाष्ठा है। जिन्होंने वह मुक्ति संग्राम नहीं लड़ा और उसके बारे में सही स्रोतों से जानकारी हासिल नहीं की, वे इसी तरह गुमराह होकर योद्धाओं के बलिदान पर सवाल उठाते रहेंगे। अगर भारतीय सेना ने उस दौरान हस्तक्षेप नहीं किया होता तो आज रावलपिंडी के जनरल ढाका की छाती पर मूंग दल रहे होते। पिछले साल अगस्त में शेख हसीना को जिस तरह बांग्लादेश छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी, उससे वहां कई कट्टरपंथी संगठनों की पौ-बारह हो गई है। मुखिया के तौर पर मोहम्मद यूनुस नकली उदारवादी छवि पेश कर रहे हैं, जबकि उन्होंने कट्टरपंथी संगठनों को खुली छूट दे रखी है। अब इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर बांग्लादेश में ऐसी पीढ़ी तैयार करने की कोशिश की जा रही है, जिसके मन में अपने राष्ट्रपिता और मुक्ति संग्राम के शहीदों के लिए कोई सम्मान नहीं होगा।  

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भविष्य में इसका असर भारत-बांग्लादेश के संबंधों पर भी हो सकता है। वहां हर साल 16 दिसंबर को प्रकाशित होने वाले अखबारों में भारतीय सैनिकों की वीरगाथाओं को प्रमुख स्थान मिलता था। जिन भारतीय नेताओं और अधिकारियों ने बांग्लादेश के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई थीं, उनका जिक्र किया जाता था। बांग्लादेश के झंडे के साथ भारतीय ध्वज के चित्र भी प्रकाशित किए जाते थे। पिछले साल इसमें भारी कटौती कर दी गई। अब मोहम्मद यूनुस पाकिस्तानी फौज के साथ नजदीकियां बढ़ा रहे हैं। ये 'अर्थशास्त्री' भूल रहे हैं कि मुक्ति संग्राम से पहले बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) का एक निवासी जब (पश्चिमी) पाकिस्तान गया और वहां फौजी अधिकारियों के ठाठ देखे तो उसने राजधानी इस्लामाबाद की सड़क के लिए कहा, 'इससे मुझे पटसन की गंध आती है!' पूर्वी पाकिस्तान के संसाधनों की लूट-खसोट से ही (पश्चिमी) पाकिस्तान के अधिकारी ऐश कर रहे थे। अगर बांग्लादेश को आज़ादी नहीं मिली होती तो आज इस्लामाबाद की सड़कों से उस खून की गंध आती, जो इतने वर्षों में रावलपिंडी के जनरल ढाका से निचोड़ लेते। आज बांग्लादेश में ऐसी 'भ्रमित' पीढ़ी आगे आ रही है, जिसके मन में भारत के प्रति नफरत का जहर भरा जा रहा है। इसकी एक झलक बांग्लादेशी सोशल मीडिया अकाउंट्स पर देखी जा सकती है। जब किशोरों और युवाओं को लगातार ऐसी पट्टी पढ़ाई जाएगी तो वे भविष्य में भारतविरोधी रुख अपनाएंगे। हाल में हैम रेडियो संचालकों को दक्षिण बंगाल में भारत-बांग्लादेश सीमा पर बांग्ला, उर्दू और अरबी में संदिग्ध सिग्नल का पता चला था। ऐसे सिग्नल का इस्तेमाल जासूसी और चरमपंथी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए किया जा सकता है। बांग्लादेश की पाकिस्तानी फौज के साथ गहरी होती 'दोस्ती' इस पूर्वी पड़ोसी को आईएसआई का अड्डा बना सकती है। यह एजेंसी भारतविरोधी गतिविधियों (आतंकवाद, नकली नोटों की छपाई, दुष्प्रचार, घुसपैठ, अल्पसंख्यकों पर हमले, तस्करी आदि) में लिप्त रहती है। इसलिए बांग्लादेश से लगती अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चौकसी बढ़ाने के साथ खूब सख्ती बरतनी चाहिए। भारत में रहने वाले अवैध बांग्लादेशियों की पकड़-धकड़ और स्वदेश रवानगी की योजना पर दृढ़ता से काम होना चाहिए।

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