समृद्धि का बुलबुला

स्विट्जरलैंड के क्रेडिट सुइस पर भारी आर्थिक संकट आ गया है

समृद्धि का बुलबुला

नामी विश्वविद्यालयों में पढ़े-लिखे प्रबंधक समझ नहीं पा रहे हैं कि इस संकट से कैसे निकला जाए

अमेरिका में सिलिकॉन वैली बैंक और सिग्नेचर बैंक का दिवालिया होना बताता है कि इस 'महाशक्ति' की चमक-दमक और समृद्धि उतनी भी नहीं है, जितनी दिखाई और बताई जाती है। 'कर्ज लेकर घी पीने' की संस्कृति विकसित कर चुके अमेरिका में यह बैंकिंग संकट कोई नई बात नहीं है। इससे पहले, साल 2008 में लेहमन ब्रदर्स का दिवाला निकल गया था। यह संकट पश्चिम के मुख से निकली हर बात को संसार का अंतिम सत्य मानने वालों के लिए भी झटका है। जिस तरह कुछ ही घंटों में ये बैंक डूबे, उसकी पहले कहीं चर्चा तक नहीं थी। 

अब यूरोप के कुछ बैंक इस राह पर चलते दिखाई दे रहे हैं। स्विट्जरलैंड के क्रेडिट सुइस पर भारी आर्थिक संकट आ गया है। नामी विश्वविद्यालयों में पढ़े-लिखे प्रबंधक समझ नहीं पा रहे हैं कि इस संकट से कैसे निकला जाए। जमाकर्ता चाहते हैं कि उनकी पाई-पाई सुरक्षित रहे। निवेशक चाहते हैं कि मुनाफे के जो वादे किए गए थे, वे पूरे किए जाएं। ताज्जुब की बात यह है कि जो रेटिंग एजेंसियां दुनियाभर के बैंकों, कंपनियों की आर्थिक स्थिति का अध्ययन कर 'उपदेश' देती हैं, उनकी नाक के नीचे बैंक दिवालिया हो गए! यह कैसे हुआ? जिस हिंडनबर्ग को भारतीय अर्थव्यवस्था की इतनी 'चिंता' थी, उसे थोड़ी चिंता अपने आस-पास स्थित बैंकों की कर लेनी चाहिए थी। 

वास्तव में अमेरिका समेत पश्चिमी देशों में इस बैंकिंग संकट के कई कारण हैं, जिससे हमें सबक लेना चाहिए। इस संकट ने यह धारणा भी ध्वस्त कर दी कि पश्चिमी देशों के पास हर समस्या का समाधान है, उनके यहां सबकुछ बहुत अच्छा है। प्राय: उन देशों में बचत की आदत को प्रोत्साहित नहीं किया जाता है। बाजार की हर चीज क्रेडिट कार्ड और कर्ज पर बहुत आसानी से मिल जाती है। माता-पिता, संतानों के पास अपनी-अपनी गाड़ियां और अपने क्रेडिट कार्ड होते हैं। अगर कोई चीज पसंद आ जाए (चाहे उसकी ज़रूरत न हो), तो खुलकर खर्च करते हैं। बाद में चुकाते रहेंगे।

प्राय: वहां लोग नए साल पर उधार में चीज़ खरीद लेते हैं। फिर क़िस्तें भरते रहते हैं। सालभर बीतने के बावजूद कर्ज नहीं उतरता कि फिर कोई ऑफर आ जाता है। 'खाओ, पीओ और मौज करो' की इस संस्कृति ने भोगवाद को बढ़ावा दिया है, जिसका परिणाम एक दिन यही होना था। भारतीय दर्शन इस प्रवृत्ति का बिल्कुल समर्थन नहीं करता, बल्कि इसे हतोत्साहित करता है। भोगवाद, जुआ, सट्टा, शराब आधारित अर्थव्यवस्था 'बुलबुले' की तरह होती है, जिसका एक दिन फूटना तय है। 

हमारे ऋषिगण इस तथ्य से परिचित थे, इसलिए भोग के स्थान पर संयम का पाठ पढ़ाया। हमारे बड़े-बुजुर्ग बचत को बहुत महत्त्व देते थे। 'तेते पांव पसारिए, जेती लांबी सौर' जैसी कहावतों के रूप में गूढ़ संदेश छोड़ गए। कोरोना काल ने बचत और मितव्ययता का महत्त्व भलीभांति सिखा दिया था।

पश्चिमी देशों में सामाजिक धारणाएं अलग हैं। वहां लोगों का तर्क होता है कि जब मुझे सबकुछ इतनी आसानी से मिल रहा है तो मैं यह मौका क्यों गंवाऊ; मेरी ज़िंदगी, मेरी मर्जी! कंपनियां किसी-न-किसी बहाने से इस प्रवृत्ति को भुनाने की कोशिश करती हैं। ऐसे ऑफर देती हैं कि लोग अपनी जेबें झड़काएं। अगर जेबें खाली हैं तो कोई बात नहीं, कर्ज ले लें। 

पश्चिम में धनपतियों को आदर्श माना जाता है। निस्संदेह अगर कोई व्यक्ति धनी होता है तो उसके पीछे उसकी मेहनत और बुद्धि होती है। इसे नकारा नहीं जा सकता, लेकिन किसी के धनी होने का यह अर्थ कदापि नहीं कि लोग उसकी जीवनशैली को कॉपी करने लग जाएं। यह प्रवृत्ति घातक सिद्ध हो सकती है। 

भारत में भी बहुत समृद्ध लोग हुए हैं, लेकिन हमारे आदर्श श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक, महात्मा गांधी आदि हैं, जिन्होंने त्याग का जीवन जिया। भारत सरकार को चाहिए कि इस बैंकिंग संकट का अध्ययन करे और हमारे बैंकों की बुनियाद और मजबूत करते हुए जहां जरूरी हो, सुधार संबंधी कदम उठाए। बैंकिंग में भारतीय मूल्यों का अधिकाधिक समावेश होना चाहिए।

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