
उदारता दिखाएं
अफगानिस्तान से अल्पसंख्यक लगभग खत्म हो गए हैं
पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न चिंताजनक है। जब इन लोगों को 'अपनी' सरकारों से कोई राहत मिलती नजर नहीं आती तो ये मजबूरी में भारत आते हैं। यहां भी उनके लिए आसानी नहीं है। केंद्र ने सीएए के रूप में उनके लिए एक दरवाजा जरूर खोला, जिसका यहां भारी विरोध हुआ। सीएए नियम अधिसूचित नहीं होने की वजह से यहां भी इनके लिए कदम-कदम पर सख्त इम्तिहान हैं। इन्हें एलटीवी (दीर्घावधि वीजा) पर ही संतोष करना पड़ता है।
उक्त देशों में हिंदू, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी धर्मावलंबियों के साथ क्या होता है, यह किसी से छुपा नहीं है। खासतौर से पाकिस्तान में हालात बहुत ज्यादा खराब हैं। वहां आए दिन हिंदू और सिक्ख समाज की बेटियों का अपहरण एवं जबरन धर्मांतरण हो रहा है। उनके मजबूर मां-बाप थानों से लेकर कचहरी तक गुहार लगाते हैं, लेकिन कहीं कोई इन्साफ नहीं मिलता। ऐसे में उनके लिए एकमात्र आशा की किरण भारत है।
क्या हम भारतीयों का यह नैतिक कर्तव्य नहीं बनता कि इन पीड़ितों, शोषितों के प्रति थोड़ी सहानुभूति दिखाएं और इन्हें नागरिकता देने के लिए आवाज उठाएं? और ये लोग बचे ही कितने हैं? अफगानिस्तान से अल्पसंख्यक लगभग खत्म हो गए हैं। पाकिस्तान में उनकी आबादी कुछ लाख बची है, जो धीरे-धीरे या तो पलायन कर रहे हैं या धर्मांतरण को मजबूर हैं।
यह भी विडंबना है कि जो वैश्विक संगठन मानवाधिकार के बड़े चैंपियन कहलाते हैं, वे न तो जबरन धर्मांतरित इन बेटियों के लिए कोई आवाज उठाते हैं और न ही उन अल्पसंख्यकों के खात्मे पर संबंधित सरकारों की निंदा करते हैं। बल्कि वे तो किसी न किसी बहाने से उनके खजाने में डॉलर बरसाते हैं। लिहाजा उनसे किसी किस्म की आशा रखना व्यर्थ है।
भारत को ही उदारता दिखानी होगी। इसके लिए सीएए के तहत नियमों को अंतिम रूप देकर नागरिकता की प्रक्रिया में तेजी लानी होगी। यह सुखद है कि नागरिकता कानून, 1955 के तहत भारतीय नागरिकता देने का अधिकार नौ राज्यों के गृह सचिवों और 31 जिलाधिकारियों को भी दिया गया है। निस्संदेह इससे इन शरणार्थियों को राहत मिलेगी।
हालांकि केंद्रीय गृह मंत्रालय की वर्ष 2021-22 (एक अप्रैल से 31 दिसंबर, 2021 तक) की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि 'इन अल्पसंख्यक समुदायों के 1,414 विदेशियों को नागरिकता कानून, 1955 के तहत भारत की नागरिकता दी गई है' — जो आंकड़ा वास्तव में बहुत कम है। आज भी अनेक शरणार्थी दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, उप्र समेत विभिन्न राज्यों में बदतर हालात में जीवन यापन को मजबूर हैं। उन पर दोहरी मार यह है कि जब ये पाकिस्तान में होते हैं तो वहां हिंदुस्तानी कहलाते हैं और जब भारत में रहकर नागरिकता की प्रतीक्षा करते हैं तो यहां पाकिस्तानी कहलाते हैं। ये जीवन का एक बड़ा हिस्सा दफ्तरों के चक्करों में लगा देते हैं। फिर भी सही समय पर 'हिंदुस्तानी' कहलाने का गौरव नहीं पाते।
ताज्जुब की बात है कि बांग्लादेश और म्यांमार से आए कई घुसपैठिए विभिन्न राज्यों में फैले हुए हैं। वे दस्तावेज तक हासिल कर लेते हैं। उन्हें वोटबैंक बनाने के लिए पार्टियां लालायित रहती हैं। ये घुसपैठिए गंभीर अपराध करते पकड़े गए हैं। यही नहीं, कई तो वर्षों से रहने के बावजूद आबादी में घुलमिल गए हैं। अगर ये देशविरोधी कृत्यों में शामिल हो जाएं तो इन्हें पकड़ना बड़ा मुश्किल होगा। विभिन्न रिपोर्टें बताती हैं कि ये घुसपैठिए लद्दाख और कश्मीर तक जा पहुंचे हैं।
इनके लिए न्यायालय में वकील खड़े हो जाते हैं और दुनिया को यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि यहां मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। सरकार को घुसपैठियों पर शिकंजा कसकर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए और जो अल्पसंख्यक (उन देशों में) भेदभाव और उत्पीड़न के बाद यहां आए हैं, उनके लिए उदारता दिखानी चाहिए।
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