हमारी भाषाएं हमारी शक्ति
वास्तव में हिंदी को लेकर जो भ्रम फैलाए जाते हैं, वे राजनीतिक लाभ से प्रेरित रहे हैं
केरल के एक गांव चेल्लनूर ने हिंदी को बढ़ावा देने की जो पहल की है, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। गांव के सैकड़ों लोग हिंदी सीख रहे हैं। नौजवानों में तो उत्साह है ही, बुजुर्ग भी बहुत उत्साहित हैं। उनमें बहत्तर साल की जानकी अम्मा का हिंदी के प्रति प्रेम अनुकरणीय है।
वास्तव में हिंदी को लेकर जो भ्रम फैलाए जाते हैं, वे राजनीतिक लाभ से प्रेरित रहे हैं। इसके लिए अक्सर यह भी कहा जाता है कि 'हिंदी को थोपा' जा रहा है। कुछ राज्य सरकारों और पूर्व की केंद्र सरकारों में मंत्री रहे राजनेता भी ऐसे 'प्रचार' को हवा देते मिल जाते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि किसी भी स्तर पर हिंदी को 'थोपने' का कोई प्रयास नहीं है और न भारत जैसे विशाल देश में यह संभव है।सरकारें क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देती रही हैं, देना भी चाहिए। हमारी भाषाएं हमारी शक्तियां हैं। ईश्वर ने हमारे देश की रचना इस प्रकार की है कि यहां विभिन्न भाषाएं हैं, हमारे पास अभिव्यक्ति के लिए कितने सारे विकल्प हैं! अगर किसी बगीचे में एक ही भांति के फूल हों तो वह उस बगीचे की तुलना में कम आकर्षक लगेगा, जहां भांति-भांति के फूल हों। विविध फूलों से सज्जित बगीचा अधिक सुगंधित, अधिक सुरम्य होगा। हमारी समस्त भाषाएं, बोलियां, उपबोलियां इन्हीं फूलों की तरह हैं।
हमारा देश इन फूलों का विशाल बगीचा है। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि हर भाषा, हर बोली, हर उपबोली को बढ़ावा मिले, उसकी सुगंध चहुंओर फैले। हर भाषा अपनी जगह उच्च कोटि की है। किसी का महत्व किसी से कम नहीं है। हर भाषा का व्याकरण, साहित्य, गीतकोश, इतिहास, शब्दकोश है, जिसका संरक्षण एवं संवर्द्धन होना ही चाहिए।
अगर इन 'फूलों' से माला बनाएं तो हमें एक ऐसी डोर की आवश्यकता होगी, जो सबको जोड़ सके, सबको एकजुट रख सके। निर्विवाद रूप से यह क्षमता हिंदी में है। हिंदी फूल भी है और डोर भी है। यही वह भाषा है, जिसमें ऐसी क्षमता है, जिसके माध्यम से भारतवासी आपस में संवाद कर सकें।
इसका यह अर्थ नहीं है कि हिंदी के प्रचार-प्रसार से अन्य भाषाओं का महत्व कम हो जाएगा। कदापि नहीं, बल्कि इससे क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृति का अधिक प्रसार होगा। आज दक्षिण भारत की फिल्में उत्तर भारत में लोकप्रियता के कीर्तिमान रच रही हैं। दक्षिण भारतीय अभिनेता/अभिनेत्री वहां बहुत पसंद किए जा रहे हैं। दक्षिण भारत के खानपान, पहनावे, स्थापत्य कला आदि की उत्तर भारत में भरपूर तारीफ हो रही है। लोग उन्हें खुले दिल से अपना रहे हैं। इसमें इंटरनेट महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
अगर इन राज्यों में हिंदी का प्रचार-प्रसार होता है तो हम सांस्कृतिक रूप से और शक्तिशाली होंगे। यह भी जरूरी है कि हिंदीभाषी राज्यों के लोगों को अपने देश की कम से कम एक भाषा और, खासतौर से दक्षिण भारत में प्रचलित भाषा सीखनी चाहिए। हमारी भाषागत विविधता हमारी शक्ति बननी चाहिए, न कि निर्बलता, इसलिए किसी भी व्यक्ति/नेता, राजनीतिक दल द्वारा हिंदी ही नहीं, भारत की किसी भी भाषा को 'कमतर' साबित करने की कोशिश को हतोत्साहित करना चाहिए।
आज अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, रूस, दक्षिण कोरिया समेत दर्जनों देशों में भारतीय भाषाएं लोकप्रिय हो रही हैं। वहां हमारा सिनेमा लोगों के दिलो-दिमाग़ पर छा रहा है। भारतवंशी विदेश जाकर सांसद, मंत्री से लेकर उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक बन रहे हैं। क्या यह उचित समय नहीं है कि हमें भाषाओं के मामले में और परिपक्वता, और एकजुटता दिखानी चाहिए?
मुट्ठीभर अंग्रेजों ने अपनी भाषा को दुनिया में कितना उच्च स्थान दिला दिया, जबकि हम दूसरी सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद अब तक अपनी ही भाषाओं का विरोध करने में ऊर्जा खर्च कर रहे हैं! हाल में मध्य प्रदेश में चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई हिंदी माध्यम से कराने का प्रशंसनीय निर्णय लिया गया था। ऐसी पहल हर राज्य / केंद्र शासित प्रदेश में संबंधित भाषाओं को लेकर बहुत पहले हो जानी चाहिए थी। अगर हम अपनी भाषाओं को सम्मान नहीं देंगे तो कौन देगा?