भारत विभाजन के लिए कौन दोषी?

भारत विभाजन के लिए कौन दोषी?

दलाई लामा दुनिया के तीन बौद्ध गुरुओं में एक हैं और उनकी प्रतिष्ठा जगजाहिर है। उन्होंने कहा है कि गांधीजी ने भारत विभाजन को रोकने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना के सामने प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव रखा। किंतु नेहरू का निर्णय आत्मकेंद्रित था कि नहीं मैं ही बनूंगा। उन्होंने यह भी कहा है कि नेहरू एक बुद्धिमान व्यक्ति थे लेकिन कभी-कभी गलतियां हो जातीं हैं।

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इस पर विवाद खड़ा होने के बाद बौद्ध धर्मगुरु की गरिमा का ध्यान रखते हुए उन्होंने क्षमा तक मांग ली है। किंतु इससे यह नहीं मानना चाहिए कि उन्होंने गलत बयान दिया है। जो उन्होंने कहा वह सच है। भारत में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो गांधी को इसके लिए उत्तरदायी ठहराते हैं, जबकि गांधीजी विभाजन के विरुद्ध डटकर खड़े थे और अपनी ओर से इसे रोकने का हरसंभव प्रयास किया।

उन्होंने विभाजन रोकने के कई प्रयास किए, जिसमें से एक था जिन्ना को अखंड भारत का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव। दस्तावेज ट्रांसफर ऑफ पॉवर तथा उस समय के रिकॉर्ड्स ऑफ इंटरव्यू में स्पष्ट है कि गांधीजी ने लार्ड माउंटबेटन के सामने एक विस्तृत प्रस्ताव रखा। इसमें जिन्ना के सामने मंत्रिमंडल के निर्माण का विकल्प था। केन्द्रीय विधानसभा में कांग्रेस का भारी बहुमत था। यदि जिन्ना यह प्रस्ताव स्वीकार कर ले तो कांग्रेस तब तक उनका समर्थन करेगी जब तक वह समग्रता में भारत के हित में काम करेगी। वे बंटवारे का प्रस्ताव रख सकते हैं, किंतु इसके लिए उन्हें ठोस तर्क देना होगा और सबको आश्वस्त करना होगा। यदि जिन्ना इसे ठुकरा देते हैं तो कांग्रेस के सामने यही प्रस्ताव अपेक्षित सुधार के साथ पेश किया जाए।

उस समय का सच यही था कि अंग्रेजों द्वारा मुस्लिम लीग एवं कांग्रेस की मिलीजुली सरकार बनाने के प्रयास विफल हो चुके थे। दोनों के मिलकर काम करने की संभावना भी नहीं थी। इसलिए गांधीजी ने यह साफ स्टैंड लिया। रिकॉर्ड आॅफ इंटरव्यू के साथ रिकॉर्ड ऑफ वायसरॉय स्टाफ मीटिंग में बातचीत का पूरा विवरण है। जैसे माउंटबेटन ने गांधीजी को कहा कि आपका प्रस्ताव मुझे पसंद आया है लेकिन नेहरू से बात करनी होगी।

प्यारेलाल की पुस्तक महात्मा गांधी, द लास्ट फेज में गांधीजी द्वारा वायसराय को लिखे उस पत्र का जिक्र हैं जिसमें उन्होंने कहा कि नेहरू की इस प्रस्ताव पर कुछ आपत्ति है, पर वायसरॉय यदि इसे व्यावहारिक मानते हैं तो वे नेहरू की आपत्ति पर बाद में विचार-विमर्श करेंगे। गांधीजी ने माउंटबेटन को साफ-साफ कहा कि आप सत्य को देखने का साहस कीजिए और उसके अनुसार निर्णय करिए। हो सकता है कि आपके जाने के बाद यहां बड़े पैमाने पर जान—माल का नुकसान हो। लेकिन आप इसकी परवाह न करें।

माउंटबेटन ने गांधी के प्रस्ताव के बाद जिन्ना को कहा कि पंजाब और बंगाल का भी बंटवारा होगा। मैं आपको ज्यादा से ज्यादा दीमक खाया हुआ पाकिस्तान दे सकता हूं। माउंटबेटन ने अपने सलाहकारों को बताया कि उन्होंने जिन्ना को कहा कि मुझे आपको केन्द्रीय सरकार के प्रधानमंत्री पद पर देखने की प्रबल इच्छा है और इसका जिन्ना पर उनकी उम्मीद से ज्यादा प्रभाव पड़ा।

उस समय वीपी मेनन सुधार आयुक्त थे। उन्होंने अपने नोट में लिखा है कि गांधीजी की राय कांग्रेस कार्यसमिति की राय से कई बार भिन्न हो चुकी थी, इसलिए यह आवश्यक नहीं था कि कांग्रेस इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती। एलेन कॅम्पबेल जॉन्सन ने मिशन विथ माउंटबेटन में लिखा है कि माउंटबेटन के सलाहकार कतई नहीं चाहते थे कि गांधी का प्रस्ताव कांग्रेस के सामने विचार के लिए आए, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं गांधी के प्रभाव में कांग्रेस इसे स्वीकार न कर ले।

माउंटबेटन से पहले उनके सलाहकारों ने ही नेहरू जी को यह बता दिया। नेहरूजी ने गांधी जी से स्पष्ट कह दिया कि वे इस प्रस्ताव को समर्थन देने की स्थिति में नहीं हैं। प्रस्ताव अस्वीकृत होने के बाद गांधी ने सीधे जिन्ना को कहा कि आप भारत के प्रधानमंत्री बन जाओ। जिन्ना इस पर चुप थे, लेकिन नेहरूजी ने कहा कि अगर ऐसा होता है तो देश इसे स्वीकार नहीं करेगा और भारी खून-खराबा होगा। डॉ. राममनोहर लोहिया उस समय कांग्रेस कार्यसमिति के विशेष आमंत्रित सदस्य थे। उन्होंने गिल्टीमैन आॅफ इंडियन पार्टिशन में लिखा है कि यदि गांधीजी की योजना स्वीकार कर जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने दिया जाता तो जिन्ना और उसके सहयोगी पाकिस्तान के मामले में इतनी हठधर्मिता नहीं करते। … अगर यह योजना कारगर हो जाती तो भारत का बंटवारा नहीं होता और यदि असफल हो जाती तो भी इससे कोई नुकसान नहीं होता।

लैरी कॉलिन्स ने फ्रीडम एट मिडनाइट में लिखा है कि माउंटबेटन के सामने स्पष्ट हो गया था कि उन्हें भारत का बंटवारा करना है और इसलिए गांधी से प्रमुख कांग्रेसी नेताओं में से कम से कम नेहरू को अलग करना आवश्यक है। माउंटबेटन ने वही किया और उसमें उन्हें सफलता मिली। उस समय जे.बी. कृपलानी अध्यक्ष थे। कृपलानी ने गांधी, हिज लाइफ एंड थॉट में लिखा है कि नेहरू और पटेल ने वायसरॉय को अपनी ओर से बंटवारा स्वीकार करने का वचन दे दिया। कांग्रेस कार्यसमिति में विचार-विमर्श भी नहीं किया गया था।

फ्रीडम एट मिडनाइट के अनुसार माउंटबेटन ने चर्चिल को बताया था कि उनकी बंटवारा योजना को कार्यान्वित करने में गांधी सबसे बड़ा खतरा है, परंतु उन्हें उम्मीद है कि नेहरू और पटेल की सहायता से वे गांधी को अड़चन नहीं बनने देंगे। हालांकि पटेल और नेहरू की भाषा एक साल पहले दूसरी थी। लार्ड वैभेल को जनवरी 1946 में पटेल ने कहा था कि वे समझ नहीं पा रहे कि अंग्रेजों के रहते हिन्दू और मुसलमान में समझौता कैसे हो सकता है और अंग्रेजों को चाहिए कि वे भारत से चले जाएं और भारतवासियों को अपनी समस्या खुद सुलझाने दें। यह गांधीजी की सोच की ही अभिव्यक्ति थी।

वी.पी. मेनन ने लिखा है कि कांग्रेस नेताओं के अंतरिम सरकार में शामिल होने के कुछ महीने भीतर ही सरदार पटेल ने उन्हें पाकिस्तान के पक्ष में अपनी स्वीकृति से अवगत कराया था। माउंटबेटन को बंटवारा के लिए कांग्रेस का प्रतिरोध तक नहीं झेलना पड़ा। सरदार पटेल और नेहरु में में इस बात पर सहमति थी कि आजादी के साथ बंटवारा भी हो ही जाए। रिकॉर्ड ऑफ वायसरॉय स्टाफ मीटिंग के अनुसार सरदार पटेल ने वायसराय को कहा कि अखंड भारत के गांधी जी के हाल के वक्तव्य पर ज्यादा ध्यान न दिया जाए।

यहां यह प्रश्न भी उठता है कि क्या भारत विभाजन को रोका जा सकता था? इसके उत्तर पर मतभेद की गुंजाइश है। गांधी जी की बात मान ली जाती कि अंग्रेज कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग में से किसी एक को सत्ता सौंपकर चले जाएं तो शायद ऐसा संभव होता। या कांग्रेस के नेता गांधी जी का प्रस्ताव मानकर अंतिम समय में जिन्ना को प्रधानमंत्री मान लेते तो हिन्दुओं की ओर से इसका विरोध होता, दंगे और मारकाट भी होता किंतु जितने लोग बंटवारे के कारण हिंसा का शिकार हुए उससे ज्यादा हिंसा होती। हालांकि अंतिम समय में ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि अंग्रेज अखंड भारत छोड़कर जाने की मनःस्थिति में थे। किंतु कांग्रेस अंग्रेजों का बंटवारा में साथ देने की भूमिका में आ चुकी थी। फिर देश का बंटवारा रुकता तो कैसे?

— अवधेश कुमार —

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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