मोदी ने रचा इतिहास

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मोदी ने रचा इतिहास

विशेष सम्पादकीयः श्रीकांत पाराशर

‘‘फिर एक बार, मोदी सरकार’’ नारा यथार्थ में परिवर्तित हो गया है। देश की जनता ने फिर से एक बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में विश्‍वास व्यक्त किया है, जिसे न चाहकर भी विपक्ष को स्वीकार करना पड़ेगा। मोदी ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़कर जीत हासिल की है और इसका पूरा श्रेय मोदी के नेतृत्व, उनकी सरकार के कामकाज और अमित शाह की रणनीति तथा इस जुगल जोड़ी की जी-तोड़ मेहनत को जाता है।

जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी और एनडीए को अधिकांश प्रदेशों में भारी सफलता मिली है और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस डेढ़ दर्जन प्रदेशों में अपना खाता भी नहीं खोल पाई, इसे मोदी की लहर नहीं बल्कि सुनामी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हालांकि विपक्ष अंतिम क्षणों तक रोड़े अटकाता रहा, कभी ईवीएम तो कभी चुनाव आयोग पर बेहूदे आरोप लगाता रहा परन्तु देश की जनता ने जिसको देश की चाबी सौंपने का निर्णय ले लिया था, वह उसने पूरी ताकत के साथ सौंप दी और अकेले भाजपा को पूर्ण बहुमत प्रदान कर दिया, भले ही वह सरकार एनडीए के घटक दलों के साथ मिलकर बनाए। इस बार के जनादेश में कई अप्रत्याशित और आश्‍चर्यजनक परिणाम सामने आए हैं।

संपादक की कलम से

हालांकि समूचा विपक्ष एनडीए को बहुमत मिलने के दावे को सिरे से नकार रहा था परन्तु अमित शाह और मोदी जिस आत्म विश्‍वास से लबरेज दिखाई दिए उससे स्पष्ट हो गया था कि वे अपने दावेे को सच साबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने ऐसा ही किया।

विपक्ष के धुरंधर अपने आपको कितने ही तीसमारखॉं समझते रहे हों परंतु अमित शाह और मोदी की जोड़ी ने जिस तरह से उन सबको घर में घुसकर मारा है उसका दर्द लंबे समय तक बने रहने की संभावना है। ममता बनर्जी ने बांग्लादेशी घुसपैठियों के समर्थन से पश्‍चिम बंगाल में अपना एकछत्र राज्य कायम कर लिया था और अपने चारों तरफ एक ऐसा अभेद्य किला तैयार कर लिया था जहां कोई सेंध न लगा सके। अगर कोई कोशिश करे भी तो उन्होंने घुसपैठी गुंडों-लफंगों-बदमाशों की एक निजी फौज तैयार करली थी जो सीबीआई अधिकारियों को खदेड़ने से लेकर अर्धसैनिक बलों को भी ललकारने लगी थी।

इन गुंडों का बंगाल में ऐसा खौफ तैयार हो गया था कि किसी जमाने में इन्हीं गुंडों के सरदार रहे वामपंथी दल भी अपने बिलों में घुस गए थे। इन्हीं गुंडों से कभी ममता की पिटाई करवाने वाली सीपीएम को छोड़कर ये गुंडे कब ममता के साथ हो गए, सीपीएम को पता भी नहीं चला। अब इनके सहारे ममता बनर्जी चक्रवर्ती सम्राट यानी प्रधानमंत्री बनने के सपने बुनने लगीं और अपनी निजी महत्वाकांक्षा के कारण आगे चलकर मोदी से ही भिड़ गईं। इस चुनौती को अमित शाह ने खुले रूप में स्वीकार किया और चुनावी अखाड़े में ताल ठोककर उतर गए। ममता को यह कतई मंजूर नहीं था सो उन्होंने भी कदम कदम पर मोदी और अमित शाह के लिए रोड़े खड़े करने शुरू कर दिए।

अंत में इस जोड़ी ने दीदी के किले में सर्जिकल स्ट्राइक करने की ठान ली। इन आम चुनावों में मोदी-शाह ने दीदी के घर में घुसकर ऐसा मारा है कि उस दर्द को न तो सहा जा सकता है और न किसी को कहा जा सकता है। जिस बंगाल में भाजपा के दो सांसदों ने दीदी के नाक में दम कर रखा था वहीं अब मोदी के डेढ़ दर्जन नुमाइंदे सांसद के रूप में बंगाल में दीदी की नींद हराम करने को तत्पर दिखाई देंगे। प्रधानमंत्री बनने का सपना पालने वाली दीदी को मुख्यमंत्री बने रहने के लिए अभी से आगामी विधानसभा चुनावों हेतु अपने घर को नए सिरे से मजबूत करना होगा। उन्हें डर लगने लगा है कि कहीं प्रधानमंत्री पद के चक्कर में मुख्यमंत्री की कुर्सी न खिसक जाए। ‘आधी छोड़ पूरी को ध्यावे, आधी मिले न पूरी पावे’ वाली कहावत कहीं चरितार्थ न हो जाए।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद बनी कांग्रेस-जनतादल(एस) गठबंधन सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचे विभिन्न विपक्षी दलों के दिग्गजों ने जिस तरह से एकदूसरे के हाथ थाम कर हवा में लहराये थे उस समय यह नहीं लगा था कि बेंगलूरु से निकलते ही यह याराना हवाहवाई हो जाएगा। सबके मन में प्रधानमंत्री बनने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। विपक्ष की जिस नाव को किनारे लगाने की जिम्मेदारी सबकी बराबर की थी, उन्होंने ही अपनी निजी महत्वाकांक्षा के चलते इस नाव में एक एक कर छेद करना शुरू कर दिया और इस सहकारी नैया को डुबोने का इंतजाम कर लिया।

अखिलेश और मायावती ने कांग्रेस को बाहर रखकर गठबंधन बना लिया। दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर कर दिए जाने से कांग्रेस का ईगो हर्ट होना स्वाभाविक था। सो उसने उत्तरप्रदेश में वोटकटवा पार्टी का रूप धारण कर लिया। ऐसा होते ही भाजपा खेमे में खुशी की पहली लहर दौड़ गई। यूपी में कांग्रेस को अछूत मानने का गठबंधन को नुकसान तो हुआ ही। उत्तर प्रदेश की जनता ने इस बेमेल गठबंधन को स्वीकार नहीं किया। दोनों ही पार्टियों के वोट ट्रांसफर नहीं हुए। उसी का नतीजा है कि गठबंधन औंधे मुंह गिरा।

दिल्ली में भी भाजपा के लिए ऐसी ही खुशी की खबर आई मगर थोड़ी देर से। केजरीवाल और कांग्रेस के बीच गठबंधन की रह रहकर चर्चा तो चली परंतु परवान नहीं चढी क्योंकि ज्यादातर चर्चा ट्वीटर या वाट्सएप पर ही होती रही। अंततः दिल्ली में गठबंधन नहीं हुआ और बैठे बैठे भाजपा को इसका लाभ मिला। हालांकि पिछले दो साल में आम आदमी पार्टी दिल्ली में जिस तरह से अपनी छवि की भद्द पिटवा रही थी उससे साफ लग रहा था कि उसका गठबंधन कांग्रेस से अगर हो भी गया तो वह कोई तीर मारने वाली नहीं है। वही हुआ। आखिर दिल्ली की सभी 7 संसदीय सीटों पर भाजपा का कब्जा हो ही गया। केजरीवाल के उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहे। अब केजरीवाल की मुख्यमंत्री कुर्सी खतरे में है। आगामी विधानसभा चुनाव में सब कुछ लुट जाने का डर उन्हें पक्का सताने वाला है।

इधर, राजस्थान की जनता ने यह साबित कर दिया है कि विधानसभा चुनाव के समय प्रदेश में जो नारा चल रहा था, ‘वसुंधरा तेरी खैर नहीं, मोदी से कोई बैर नहीं’, वह नारा सही था। मोदी से जनता को कोई नाराजगी न तब थी और न अब है। इसलिए राजस्थान में भाजपा ने आम चुनाव में फिर से पूरे गर्व से परचम फहराया है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने पुत्र वैभव गहलोत को भी जीत का स्वाद नहीं चखा सके। अशोक गहलोत के सिर पर 5 महिने पहले ही मुख्यमंत्री का ताज सजाया गया था परन्तु इन पांच महिनों में वह जनता को किसी भी तरह से नहीं लुभा सके। अपने आपको जादूगर बताने वाले गहलोत का कोई जादू नहीं चला।

मध्यप्रदेश में कांग्रेस को एक अवसर मिला था कि वह लोकसभा चुनाव में उस अवसर को भुनाए परंतु मुख्यमंत्री कमलनाथ ने किसानों का पूर्ण ऋण माफ करने के बजाय उन्हें दो सौ, तीन सौ रुपये के चेक थमा दिए और राहुल गांधी ने किसानों को जो गारंटी दी थी, उसको ही धत्ता बता दिया। धत्ता का जवाब मध्यप्रदेश की जनता ने भी धत्ता से ही दिया है। यह कोई आश्‍चर्यजनक नहीं है। मध्यप्रदेश में किसानों की नाराजगी का कांग्रेस को उचित फल मिला है। उड़ीसा में बीजू जनता दल और भाजपा ने ही अधिकांश सीटें ली हैं। बीजेडी की सीटें भी अगर बीजेपी की मानी जाएं तो कोई गलत नहीं कहा जाएगा। बीजेडी तटस्थ रहते हुए भी मोदी सरकार का सहयोग करती रही है।

वैसे तो भाजपा को संख्या के लिए बीजेडी के समर्थन की जरूरत नहीं होगी परन्तु जरूरत पड़ी भी तो नवीन पटनायक मोदी को निराश शायद ही करें। गुजरात, हरियाणा, आसाम, महाराष्ट्र तो मोदी के सपनों को पूरा करने के लिए मानो संकल्पबद्ध ही थे। ऐसा माना जाता था कि इन प्रदेशों में वर्ष 2014 की तुलना में कुछ सीटों का घाटा हो सकता है, परन्तु ऐसा होने नहीं दिया। सब ने आशा से बेहतर प्रदर्शन किया। चुनावों से पूर्व भाजपा शिवसेना के बीच खटास का खत्म होना और गठबंधन बरकरार रहना दोनों पार्टियों के लिए लाभकारी रहा। बिहार में नीतीश कुमार के साथ आने से दोनों दलों को परस्पर मजबूती मिली और यह चुनाव परिणामों में दिखाई भी दी।

कांग्रेस की हार की गहराई में जाएं तो पता लगेगा कि कांग्रेस को कुछ तो ‘‘चौकीदार चोर है’’ और ‘‘राफेल में घोटाला हुआ है’’ जैसे बेबुनियाद नारे, जुमले ले डूबे। रही सही कसर शशि थरूर, सैम पित्रोदा, दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर और सुरजेवाला आदि के समय समय पर दिए गए बयानों ने पूरी कर दी। राहुल द्वारा प्रधानमंत्री को समय समय पर अपमानित करना, चैलेंज करना, मुझसे आंख नहीं मिला सकते, मेरे सामने दस मिनट ठहर नहीं सकते, मंच पर मुझसे किसी भी विषय पर चर्चा नहीं कर सकते, उन्हें जेल जाना पड़ेगा, ऐसे वक्तव्यों ने कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया। एक व्यक्ति स्वयं भ्रष्टाचार के आरोप में जमानत पर हो, परिवार के सदस्य जमानत पर हों वह बिना सबूत के प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति को चोर बताए, रैलियों में चौकीदार चोर है के नारे लगवाये, यह जनता के गले नहीं उतरा। कांग्रेस ने मुद्दों पर आधारित चुनाव नहीं लड़ा।

चुनाव शुरू होने के बाद ‘न्याय’ जैसी योजना लाई भी गई तो उसमें कोई स्पष्टता दिखाई नहीं दी। न्याय को लागू कैसे किया जाएगा, धन कहां से आएगा इसके बारे में जनता को समझाने की कोशिश की गई परन्तु मतदाता को विश्‍वास नहीं हुआ। एक तरफ मोदी जैसा विश्‍वासनीय नेतृत्व था और दूसरी तरफ कांग्रेस का काला अतीत। जनता ने उस नेतृत्व में पुनः विश्‍वास जताया है जिसने स्वच्छता आंदोलन से देश को जागरूक किया, घर घर एलपीजी गैस पहुंचाई, अति निर्धन लोगों को ढाई लाख रुपये की सहायता से घर बनवाकर दिए, पूरे देश में जरूरतमंदों के घरों में शौचालय का निर्माण कराया, किसानों को उनके खाते में दो-दो हजार की दो किश्तें भेज दी और वर्ष में कुल छह हजार रुपये देने का आश्‍वासन दिया। हर गांव तक बिजली पहुंचाई। विश्‍व स्तर पर देश का नाम रोशन किया। देश के दुश्मन पाकिस्तान को सबक सिखाया, आतंकवाद पर अंकुश लगाया। मोदी के इन कामों का लाभ तो मिलना ही था।

एक तरफ सबका साथ, सबका विकास को लक्ष्य मानकर बिना भेदभाव केन्द्र सरकार की योजनाओं का लाभ पहुंचाया जा रहा था तो दूसरी तरफ निजी स्वार्थों के चलते सब विपक्षी दल मिलकर केवल ‘‘मोदी हटाओ’’ के एक मात्र ध्येय पर पूरी ताकत झोंके हुए थे। कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं को छोड़कर एक नेता को प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर चुनावी मैदान में उतरता तो शायद मोदी को बेहतर चुनौती दे सकता था किन्तु ऐसा नहीं हुआ। अब पछताये होता क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।

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