महिलाओं को साफा पहनाने का प्रचलन कितना उचित?

महिलाओं को साफा पहनाने का प्रचलन कितना उचित?

महिलाओं को साफा पहनाने का प्रचलन कितना उचित?

दक्षिण भारत राष्ट्रमत के समूह संपादक श्रीकांत पाराशर

श्रीकांत पाराशर
समूह संपादक, दक्षिण भारत राष्ट्रमत

मैं नहीं कहता कि मेरे विचार सही ही होंगे परंतु व्यक्त करने का अधिकार तो सबको है। जिनको ठीक न लगें, नजरंदाज़ कर दें और जिनको कुछ विचारणीय लगें , वे स्वयं भी विचार करें और इन विचारों को आगे बढाएं। सभा संस्थाओं में इस विचार को रखें, चर्चा करें, विचार मंथन करें। मंथन से जो निकलेगा, वह मक्खन ही होगा।

आजकल देखादेखी एक प्रचलन तेजी से बढ रहा है। सार्वजनिक कर्यक्रमों में महिलाओं को साफा पहनाकर सम्मान किया जाता है। हो सकता है कि उनके प्रति अतिरिक्त सम्मान व्यक्त करने का यह प्रयास हो। यह भी हो सकता है कि इसके पीछे यह भावना हो कि हम महिला- पुरुष में कोई भेद नहीं करते इसलिए उनको भी पुरुषों के समान साफा पहनाकर बराबरी का दर्जा देते हैं। इसके लिए उनके पास तर्क भी होंगे। हो तो यह भी सकता है कि उनको साफा पहनाकर मुगालते में रखा जा रहा हो कि देखिए पुरुष आपको समान अधिकार और सम्मान दे रहे हैं। विचार करना जरूरी है कि इसमें दिखावा कितना है और वास्तविकता कितनी है।

मैं यह समझता हूं कि कोमलता, करुणा, नाजुकता, विनम्रता, प्रेम, आत्मीयता आदि महिलाओं के आभूषण हैं। यह उनकी शोभा हैं।जब सम्मान देने के विशेष अवसर आते हैं तो महिलाओं को चुनड़ी ओढाकर और पुरुषों को साफा पहनाकर बराबरी का सम्मान दिया जा सकता है। मन में उनके प्रति सच्चा आदर हो यह और भी ज्यादा जरूरी है। जो जिसको, जहां, जैसे शोभा दे उस अनुसार कोई भी काम हो तो उसकी सर्वत्र सराहना होती है। बराबरी का दर्जा तो पुरुषों को चुनड़ी ओढाकर भी दिया जा सकता है। लेकिन हम ऐसा क्यों नहीं करते? क्या इसका हमारे पास जवाब है?

महिलाएं पेंट शर्ट पहनती हैं तो बराबरी करने के लिए हम साड़ी और सलवार शूट क्यों नहीं पहनते? दरअसल महिलाओं को जब उच्च शिक्षा दी जाने लगी तो शिक्षा के पश्चात प्रारंभ में कामकाजी महिलाओं ने सुविधा के मद्देनजर पुरुषों वाला पहनावा अपनाया जो आगे चलकर समय और परिस्थितियों के अनुसार आम हो गया। इसको स्वीकार करना सही है क्योंकि महिला शिक्षा को हमने सोच समझकर ही बढावा दिया और समय के अनुसार इसकी आवश्यकता भी है। लेकिन उन्हें साफा पहनाकर दिखावटी सम्मान देने के नए नए तरीके ढूंढकर मनुष्य क्यों महिलाओं का सौंदर्यबोध खत्म कर उन्हें मर्दानी बनाने पर तुला है, मेरी समझ से बाहर है। हां, परिस्थितियों के अनुरूप अगर ऐसा करना पड़े वह अलग बात है। …..खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी….क्योंकि उनके (झांसी की रानी के) सामने वैसी परिस्थितियां निर्मित हो गई थीं। वे जब-तब सिर पर साफा नहीं बांधती थीं। वैसे भी उन्होंने मुगलों से लड़ते समय सिर पर साफा नहीं बांधा था।

कभी कभी मुझे तो यह लगता है कि घर परिवार का दायित्व संभालने वाली महिलाओं को पुरुष अपना साफा पहनाकर सामाजिक स्तर पर विभिन्न समस्याओं से जूझने के लिए भी महिलाओं को आगे कर देना चाहता है। अप्रत्यक्ष रूप से उसके कंधे पर संस्कार निर्माण, समाज सुधार, कुरीतियों के निवारण का काम भी डालकर खुद केवल अग्रणी नेतृत्व वाले पदों का अलंकारी दायित्व संभालने का मन बना रहा है और उसी का प्रयास कर रहा है। कई जगह यह दिखाई भी दे रहा है। सब को पता है कि महिलाओं को जो भी काम सौंपा जाए वे ज्यादा गंभीरतापूर्वक और शालीनता से, कर्मठता के साथ करने की कोशिश करती हैं, इसीलिए जगह जगह उनके द्वारा आयोजन होते दिखते हैं या जो भी आयोजन हों उनमें उनकी भागीदारी ठीक से दिखाई देती है।

मैं यह सोचता हूं कि हमारी माता-बहनों के प्रति हृदय में मान सम्मान रखें, उनको सामाजिक संगठनों में उपयुक्त पद प्रतिष्ठा प्रदान करें, उनको आवश्यक अवसर दें और साथ में सहयोग दें, आयोजनों के लिए धन उपलब्ध कराएं। केवल साफा पहनाकर बराबरी का अहसास कराने से कुछ नहीं होगा। साफा पहनकर महिलाएं भी भ्रम न पालें। उचित तो यह है कि हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक पारिवारिक व्यवस्था में जो महिला- पुरुष को बनाया गया है, उन्हें वैसा ही रहने दें। समय के साथ धीरे धीरे जो बदलाव प्रत्याशित हैं, आवश्यक हैं, उन्हें सहज स्वीकार करते हुए आगे बढें। बहुत तेज दौड़ भी अच्छी नहीं कि संतुलन न बने और गिर पड़ें। चिंतन की जरूरत है।

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