कागजी शेर, रणनीति ढेर

पाकिस्तान के दूसरे फील्ड मार्शल बनेंगे मुनीर

कागजी शेर, रणनीति ढेर

क्या इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराएगा?

'कोर्ट मार्शल' का हकदार होने पर भी 'फील्ड मार्शल' बनने वाले को जनरल आसिम मुनीर कहते हैं! ऐसा चमत्कार सिर्फ पाकिस्तान में हो सकता है। क्या 'दो क़ौमी' नज़रिए की भड़काऊ बयानबाजी और पहलगाम आतंकी हमला इसलिए कराया था, ताकि मुनीर की नौकरी थोड़ी और पक्की हो जाए? जनरल आसिम मुनीर, जनरल याह्या ख़ान के बाद दूसरे ऐसे सेना प्रमुख हुए हैं, जिनकी फौज को शिकस्त मिलती रही, लेकिन ये अपनी कुर्सी के साथ ज्यादा मजबूती से चिपकने का अभ्यास करते रहे। याह्या शराबखोरी और अनैतिक गतिविधियों में व्यस्त रहे, मुनीर चीनी हथियारों के भरोसे फील्ड मार्शल बनने का ख्वाब देखते रहे। मैदान में दोनों ही कागजी शेर साबित हुए। भारत द्वारा 'ऑपरेशन सिंदूर' चलाए जाने के बाद पाकिस्तान की हालत खराब हो गई थी। उसका एयर डिफेंस सिस्टम सोता रहा और भारतीय मिसाइलों और ड्रोन्स ने पीओके से लेकर पाकिस्तान के कई इलाकों में तबाही मचा दी थी। अगर कोई मजबूत लोकतांत्रिक देश होता तो बड़बोलेपन और खराब सैन्य प्रदर्शन के कारण मुनीर जैसे सेना प्रमुख के खिलाफ कोर्ट मार्शल की प्रक्रिया शुरू कर देता। मुनीर और शहबाज शरीफ दोनों एक-दूसरे के सम्मान में जिस तरह भारी-भरकम शब्दों वाले बयान दे रहे हैं, उससे पाकिस्तानी जनता उलझन में है। दोनों में से कौन झूठ बोलने में ज्यादा महारत रखता है? शहबाज का यह कहना अत्यंत हास्यास्पद है कि मुनीर ने देश की सुरक्षा सुनिश्चित की और उच्च रणनीति और साहसी नेतृत्व के आधार पर दुश्मन को हराया, जिसके बदले उन्हें फील्ड मार्शल के तौर पर पदोन्नति दी गई है!

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कैसी सुरक्षा, कैसी रणनीति, कैसा नेतृत्व और कैसी जीत? आसिम मुनीर तो बुरी तरह नाकाम हुए हैं। उन्होंने पहलगाम हमले के बाद भारत के तीखे तेवर देखकर अपने आतंकवादियों को 'सुरक्षित' ठिकानों में छिपा दिया, लेकिन भारतीय खुफिया एजेंसियों ने उनका तुरंत पता लगा लिया था। भारत ने ब्रह्मोस की बौछार कर मुनीर की पूरी रणनीति को ज़मींदोज़ कर दिया। अब पाकिस्तान के आतंकवादियों को भी मुनीर पर भरोसा नहीं रहा। वे अपनी जान बचाने के लिए जगह बदलते फिर रहे हैं। दरअसल इस संपूर्ण घटनाक्रम के बाद पाकिस्तान में भारी जनाक्रोश भड़कने की आशंका थी। मुनीर को फील्ड मार्शल बनाने की घोषणा कर शहबाज ने उनकी कुर्सी बचा ली। साथ ही, उन्होंने अपनी कुर्सी भी सुरक्षित कर ली। अब दोनों इस दुष्प्रचार को हवा देंगे कि 'हम जीत गए, हमने पाकिस्तान को बचा लिया, अगर हम न होते तो मुल्क की ईंट से ईंट बज जाती।' मुनीर और शहबाज अपनी नाकामी को बड़ी कामयाबी बताकर खुद को हीरो की तरह पेश करना चाहते हैं, ताकि इमरान खान का सियासी कद घटाने में आसानी हो और वे अप्रासंगिक हो जाएं। पाकिस्तानी जनता की अक्लमंदी का यह हाल है कि लाहौर और कराची जैसे शहरों में कई जगह मिठाइयां बांटी जा रही हैं! इतनी शर्मनाक शिकस्त पर मिठाई कौन बांटता है? हाथों में लड्डू लेकर जाते ये लोग शेख चिल्ली की कहानियों के पात्र लगते हैं। इन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसी ही मिठाइयां साल 1965 में भी बांटी गई थीं। तब पाकिस्तान की बागडोर जनरल अय्यूब खान के हाथों में थी, जो इस देश के पहले फील्ड मार्शल बने थे। उन्होंने युद्ध में करारी हार के बावजूद उसे जीत की तरह प्रचारित किया और जनता को खूब मिठाइयां खिलाई थीं। उसके छह साल बाद पाकिस्तान के टुकड़े हो गए थे। अब पाकिस्तान में दूसरे फील्ड मार्शल आए हैं और हार के बावजूद मिठाइयां बंट रही हैं। क्या इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराएगा? संकेत तो ऐसे ही मिल रहे हैं।

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