बांग्लादेशी हिंदुओं की कौन सुनेगा?

उनकी आवाज न तो संयुक्त राष्ट्र संघ तक जाती है और न ही मानवाधिकार के चैंपियन संगठनों तक

बांग्लादेशी हिंदुओं की कौन सुनेगा?

भारतीय मीडिया को तो बांग्लादेशी हिंदुओं की आवाज जरूर उठानी चाहिए

बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं और उनके मंदिरों पर हमलों की बढ़ती संख्या अत्यंत चिंता का विषय है। यूं तो दुर्गा पूजा भारत समेत दुनिया के उन सभी इलाकों में होती है, जहां हिंदू रहते हैं, लेकिन समग्र बंगाल में बहुत भव्य स्तर पर आयोजन किए जाते हैं। चूंकि बांग्लादेश की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि इससे अलग नहीं है, इसलिए वहां भी हिंदू इसे बहुत प्रेम व उत्साह से मनाते हैं। इस बार उनके मन में कई आशंकाएं हैं। 

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पिछले कुछ वर्षों से नवरात्र के दौरान ऐसी अप्रिय घटनाएं हो रही हैं, जिससे मन में कई सवाल पैदा होना स्वाभाविक है। बांग्लादेश में जनवरी 2024 में आम चुनाव होने हैं, इसलिए कुछ कट्टरपंथी संगठन वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए उपद्रव से बाज़ नहीं आ रहे हैं। इस पड़ोसी देश से हिंदू मंदिरों पर हमलों के जो आंकड़े आ रहे हैं, वे हैरान करने वाले हैं। 

प्राय: भारत में उन पर ज्यादा चर्चा भी नहीं होती। इस साल अब तक लगभग ढाई दर्जन मंदिरों पर हमले हो चुके हैं। यह आंकड़ा उससे पिछले साल मंदिरों पर हुए हमलों के आंकड़े से दुगुना है। अगर सितंबर की ही बात करें तो कम से कम तीन मंदिर कट्टरपंथियों का निशाना बन चुके हैं। लगता है कि बांग्लादेश में सरकार और स्थानीय प्रशासन को हिंदू हितों की कोई चिंता नहीं है। कट्टरपंथियों और उपद्रवियों में कानून का कोई खौफ नहीं है। उन्हें खुली छूट मिली हुई है। 

हर साल दुर्गा पूजा से पहले हिंदू बहुत उत्साह से तैयारियों में जुट जाते थे। इस बार भी तैयारियां हो रही हैं, लेकिन उसके साथ एक अजीब तरह की बेचैनी छाई हुई है। हिंदू संगठनों को आशंका है कि कट्टरपंथी जमातें रंग में भंग डाल सकती हैं। वर्ष 2021 की भयावह यादें ताजा हो रही हैं, जब कुछ शरारती तत्त्वों ने सांप्रदायिक हिंसा भड़का दी थी, जिसके बाद कई पांडालों को निशाना बनाया गया था। हिंसा पीड़ित उन हिंदुओं ने मदद के लिए पुलिस को फोन किया, लेकिन निराशा ही हाथ लगी। सोशल मीडिया पर ऐसी कई ऑडियो रिकॉर्डिंग वायरल हुई थीं, जिनमें यह तक दावा किया गया कि पुलिसकर्मियों ने पीड़ितों को ही यह सलाह दे दी थी कि वे धर्मांतरण कर लें और चैन से रहें!

वास्तव में सरकार चाहे शेख हसीना की हो या खालिदा जिया की, अल्पसंख्यकों की परेशानियां कम नहीं हुईं। हालांकि शेख हसीना का रुख अल्पसंख्यकों के प्रति कुछ नरम रहता है, लेकिन वोटबैंक के सामने उनकी पार्टी को झुकना ही पड़ता है। इस साल फरवरी में मंदिरों पर हमलों की कई घटनाएं हुईं। हैरानी की बात यह है कि एक ही रात को लगभग 14 मंदिरों को निशाना बनाया गया था। उसके बाद पुलिस ने कितनी सक्रियता दिखाई, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वह अब तक खाली हाथ बैठी है। 

एक कांस्टेबल तक को यह जानकारी होती है कि उसके इलाके में कौन-कौन उपद्रवी तत्त्व हैं। उसके बावजूद पूरा विभाग मौन साधे बैठा हुआ है। आगामी दुर्गा पूजा में हिंसा को लेकर आशंका बलवती होने का एक कारण यह भी है कि हाल में एक प्रसिद्ध मूर्तिकार ने मां दुर्गा की कई मूर्तियां बनाई थीं। दूसरे दिन वे सभी खंडित पाई गईं। उन्हें स्थानीय उपद्रवियों ने खंडित कर दिया था। उससे दो दिन पहले दो दुर्गा मंदिरों में तोड़फोड़ मचाई गई थी। ऐसे में अल्पसंख्यक हिंदुओं को आशंका है कि दुर्गा पूजा के दौरान शरारती तत्त्व ऐसी कोई हरकत कर सकते हैं, जिससे माहौल बिगड़ सकता है। 

आश्चर्य की बात है कि उनकी आवाज न तो संयुक्त राष्ट्र संघ तक जाती है और न ही मानवाधिकार के चैंपियन उन संगठनों तक, जो भारत में छोटी-सी घटना को लेकर भी सड़कों पर उतरने का आह्वान कर देते हैं, असहिष्णुता का नारा उछालते हैं! शायद बांग्लादेशी हिंदुओं के लिए आवाज उठाने से उन्हें न कोई तमगा मिलेगा और न कोई वाहवाही, इसलिए खामोश रहना ही ठीक समझते हैं। अगर वे चाहें तो बांग्लादेश सरकार पर दबाव डाल सकते हैं। वहां अल्पसंख्यकों के जीवन को इतना सुरक्षित बना सकते हैं कि वे सुख-चैन से पूजा कर सकें। 

बांग्लादेश कोई इतनी बड़ी ताकत नहीं है कि उनकी उपेक्षा कर दे। अगर उसे आर्थिक नुकसान और विभिन्न प्रतिबंध दिखाई देंगे तो उसकी सरकार मजबूरन उपद्रवियों पर कार्रवाई करेगी। कम से कम भारतीय मीडिया को तो बांग्लादेशी हिंदुओं की आवाज जरूर उठानी चाहिए।

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