सोशल मीडिया और अनुशासन
स्कूल-कॉलेज के कई विद्यार्थी इसके इतने आदी हो चुके हैं कि उनकी पढ़ाई को नुकसान हो रहा है
सोशल मीडिया कंपनियां नए-नए प्रयोग करती रहती हैं, ताकि लोग इस मंच पर ज्यादा से ज्यादा समय बिताएं
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने के लिए उम्र सीमा तय करने के संबंध में अत्यंत प्रासंगिक टिप्पणी की है। करीब डेढ़ दशक पहले, जब भारत में सोशल मीडिया का विस्तार हो रहा था तो इसके फायदों की ही चर्चा की जाती थी। आज यह माध्यम बेलगाम होता जा रहा है। अपराधी भी इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं।
वहीं, स्कूल-कॉलेज के कई विद्यार्थी इसके इतने आदी हो चुके हैं कि उनकी पढ़ाई को नुकसान हो रहा है। चूंकि यहां अकाउंट बनाना बहुत आसान होता है, इसलिए कोई भी चुटकियों में बना सकता है। जन्मतिथि से लेकर बाकी जानकारी ग़लत भरें, तो भी अकाउंट बनाने में कोई खास बाधा नहीं है। कुछ बच्चे छद्म नाम से अकाउंट बना लेते हैं। वे स्कूल में इसकी चर्चा कर सहपाठियों पर रौब जमाने की कोशिश करते हैं।इसके परिणामस्वरूप अन्य बच्चे घर जाकर जिद करते हैं कि उन्हें मोबाइल फोन दिलाया जाए। इन दिनों सोशल मीडिया पर अशोभनीय सामग्री की भरमार है। अभद्र टिप्पणियां और आपत्तिजनक वीडियो खूब वायरल हो रहे हैं। इन्हें देखकर बच्चों के कोमल मन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह मंच विद्यार्थियों के लिए असुरक्षित होता जा रहा है। एक महिला, जिनकी बेटी 10वीं कक्षा में पढ़ती है, वे उसकी सोशल मीडिया पर सक्रियता को लेकर चिंतित थीं। उनकी चिंता अपनी बेटी की पढ़ाई के साथ उसकी सुरक्षा से भी जुड़ी हुई थी।
एक दिन उन्होंने सोशल मीडिया पर छद्म नाम से अकाउंट बनाया और बेटी को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी, जो उसने स्वीकार कर ली। फिर परिचय हुआ, बातों का सिलसिला आगे बढ़ा। महिला को उस समय हैरानी हुई, जब उन्होंने अपनी बेटी से उसकी फोटो मांगी, जो उसने भेज दी। बाद में महिला ने उसे सोशल मीडिया से जुड़े जोखिमों के बारे में समझाया और अकाउंट डिलीट करवा दिया।
सोशल मीडिया कंपनियां नए-नए प्रयोग करती रहती हैं, ताकि लोग इस मंच पर ज्यादा से ज्यादा समय बिताएं। हाल के वर्षों में छोटे वीडियो का चलन बढ़ा है। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि लोगों के पास बड़े वीडियो देखने के लिए समय नहीं होता। हालांकि कई बार छोटे वीडियो देखते-देखते कई घंटे बीत जाते हैं। इससे विद्यार्थियों की पढ़ाई चौपट होने का अंदेशा रहता है।
राजस्थान में सीकर जिले के एक गांव की छात्रा पढ़ाई में बहुत होशियार थी। वह स्कूली पढ़ाई के बाद कॉलेज शिक्षा के लिए जयपुर आई। यहां उसने सोशल मीडिया पर अकाउंट बना लिया। अब वह कई-कई घंटे इस पर बिताने लगी। इससे पढ़ाई में प्रदर्शन कमजोर होने लगा। जब परीक्षा परिणाम आया तो वह बमुश्किल द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण हुई। उसके माता-पिता को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वह स्कूली परीक्षा में जिस विषय में सबसे ज्यादा अंक लाती थी, कॉलेज की परीक्षा में उसमें बहुत कम अंक मिले। इसके बाद उस छात्रा ने सोशल मीडिया से तौबा कर ली और मन लगाकर पढ़ाई की। अगले साल उसका प्रदर्शन शानदार रहा।
इसी तरह मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहे एक छात्र को सोशल मीडिया का ऐसा चस्का लगा कि उसने किताबों से दूरी बना ली और काफी समय तक चैटिंग करने लगा। कभी स्कूल का बेहद प्रतिभाशाली छात्र रहा यह लड़का सोशल मीडिया के भंवर में फंसता गया और परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया।
ये तो महज कुछ उदाहरण हैं। आज कई घरों में अभिभावक यह शिकायत करते हैं कि बच्चा मोबाइल फोन के लिए जिद करता है। जब उसे दे देते हैं तो वह 'कुछ समय और' का अनुरोध करते हुए कई घंटे बर्बाद कर देता है। फिर वह न तो समय पर होमवर्क कर पाता है और न ही टेस्ट की तैयारी ठीक तरह से करता है। इससे घर में अशांति का वातावरण हो जाता है।
वास्तव में सोशल मीडिया के संबंध में अनुशासन की जरूरत है। पहले बड़े इसका कड़ाई से पालन करें। फिर छोटों को समय के महत्त्व और जीवन-निर्माण के बारे में समझाएं। इससे जो परिवर्तन आएगा, उसका प्रभाव गहरा होगा।