सम्मेद शिखर की मर्यादा

हर तीर्थभूमि का विकास होना चाहिए, लेकिन वह लोगों की आस्था के अनुसार ही होना चाहिए

सम्मेद शिखर की मर्यादा

तीर्थ स्थल मन-बहलाव और मस्ती की जगह नहीं हैं

झारखंड के गिरिडीह में स्थित श्री सम्मेद शिखरजी को पर्यटन स्थल घोषित करने के फैसले के खिलाफ जैन समुदाय में आक्रोश होना स्वाभाविक है। ऐसा बहुत कम हुआ है, जब अत्यंत शांत रहने वाले इस समुदाय के लोग एकसाथ इतनी बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरे हों। 

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अहम सवाल यह भी है- आखिर जैन तीर्थस्थल को जैनियों की इच्छा के विरुद्ध जाकर सरकार पर्यटन स्थल क्यों बनाना चाहती है? क्या इससे यह योजना फलीभूत होगी? क्या सरकार को पर्यटन स्थल विकसित करने के लिए कोई और जगह नहीं मिली? देशभर में बड़ी संख्या में ऐसी जगह हैं, जिन्हें पर्यटन के लिए विकसित किया जाए तो वे कमाल कर सकती हैं। उनमें प्राय: उपेक्षित हैं। न सरकारें उनकी सुध लेती हैं और न जनता उनके संरक्षण के लिए गंभीर है। उनका विकास हो तो पर्यटन और रोजगार के अवसर सृजित होंगे। जगह की सूरत बदलेगी तो कई लोगों का भला हो जाएगा। 

निस्संदेह जीवन की कई जरूरतों में से पर्यटन भी एक है। लोग अपनी मनपसंद जगह जाते हैं, घूमते-फिरते हैं, यादों को संजोने के लिए सेल्फी लेते हैं और मौज-मनोरंजन के माहौल में समय बिताकर वापस आ जाते हैं। सम्मेद शिखरजी को इन शब्दों के दायरे में लाना ही अनुचित है। यहां 20 तीर्थंकरों ने मोक्ष प्राप्त किया था। इसलिए यह अतिपवित्र स्थान है। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इसकी पवित्रता और मर्यादा का संरक्षण करे। यह सैर-सपाटे और मेले-ठेले की जगह नहीं है। यह आत्मोद्धार और परम् सत्य से साक्षात्कार का स्थान है। सम्मेद शिखरजी से विश्वभर के जैनियों की आस्था जुड़ी हुई, इसलिए सरकार को ऐसे किसी भी कदम से बचना चाहिए, जिससे समुदाय की भावनाएं आहत हों।

अगर सरकार पर्यटन स्थलों का विकास करना चाहती है तो जरूर करे, लेकिन उनका जो पर्यटन के लिए उपयुक्त हों। आज 'पर्यटन' के मायने कहीं विस्तृत हो चुके हैं। बढ़ते बाजारवाद के कारण पर्यटन कंपनियों का ध्यान मुनाफे की ओर होता है तो पर्यटक अपने खर्च किए गए पूरे पैसे का आनंद लेना चाहते हैं। यह विषय भौतिक जगत की तृष्णा की पूर्ति तक तो उचित है, लेकिन इसमें आत्मोद्धार एवं मोक्ष जैसे उच्चतम उद्देश्यों से जुड़े स्थान को भी ले आना असहज कर सकता है। 

खासतौर से उस जैन समुदाय को, जिसकी पहचान आस्था, सहिष्णुता, स्वावलंबन और परोपकार से है; जिसने वोटबैंक की राजनीति के दौर में भी सरकारों से कभी कोई 'बड़ी मांग' नहीं की। कहीं ऐसा तो नहीं कि 'एक अतिसहिष्णु समाज कुछ कहेगा ही नहीं, इसलिए उसके साथ कुछ भी करने में क्या बुराई है', यह सोच हावी हो गई है? क्या सरकार ने पर्यटन स्थल विकसित करने के नाम पर जैन समुदाय की धार्मिक आस्था से छेड़छाड़ करने का मन बना लिया है? 

झारखंड सरकार के फैसले के खिलाफ उपवास कर रहे जैन मुनि सुज्ञेयसागर महाराज ने तो देह भी त्याग दी! उन्होंने जयपुर की भीषण सर्दी में उपवास करते हुए 25 दिसंबर के बाद से कुछ भी नहीं खाया था। आखिरकार उन्होंने सम्मेद शिखरजी की पवित्रता और मर्यादा की रक्षा के लिए प्राण त्याग दिए। इससे सरकार के प्रति लोगों में आक्रोश और गहरा हो गया है। 

निस्संदेह हर तीर्थभूमि का विकास होना चाहिए, लेकिन वह लोगों की आस्था के अनुसार ही होना चाहिए। तीर्थ स्थल मन-बहलाव और मस्ती की जगह नहीं हैं। अगर उनका विकास पर्यटन स्थलों के अनुसार होगा तो संस्कृति में विकार पैदा होने लगेंगे, जिनकी भारी कीमत सर्वसमाज को भविष्य में चुकानी होगी।

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