'दास' या 'स्वामी'?
प्राय: कई परिवारों में स्मार्टफोन के बहुत ज्यादा इस्तेमाल से क्लेश और तनाव से लेकर तलाक़ तक की नौबत आ चुकी है
असीमित एवं अमर्यादित उपयोग से तो जीवनदायिनी औषधि भी विष बन जाती है
नब्बे का दशक बीतते-बीतते मध्यम वर्गीय परिवारों की यह आम शिकायत थी कि टीवी ने हमारे बीच दूरियां बढ़ा दीं। परिवार के सदस्य एक ही छत के नीचे बैठकर एक ही टीवी की ओर टकटकी लगाए रहते हैं, लेकिन उन्हें आपस में खुलकर बात करने का समय नहीं मिलता। क़रीब दो दशक बाद स्थिति उससे भी आगे निकली हुई प्रतीत होती है।
वीवो द्वारा किया गया एक सर्वे इसी की ओर संकेत कर रहा है, जिसके अनुसार स्मार्टफोन लोगों की शादीशुदा ज़िंदगी में दूरियां बढ़ा रहा है। वीवो ने बड़े शहरों में सर्वे कर जो आंकड़ा जुटाया (88 प्रतिशत), उससे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन यह कड़वी हकीकत है कि स्मार्टफोन के हद से ज्यादा इस्तेमाल से कई घरों में रिश्ते खराब हुए हैं।
अब यह याद रखना आसान है कि किसी सेलिब्रिटी के किस डायलॉग का वीडियो खूब वायरल हो रहा है, जबकि यह याद रखना कुछ मुश्किल है कि पिछली बार अपने जीवनसाथी की किसी खूबी की कब तारीफ की थी या परिवार के साथ बातें करते हुए खुलकर कब हंसे थे। इसका सारा दोष स्मार्टफोन पर मंढ़ देना ठीक नहीं है। ज़रूरत इस बात की है कि उपयोगकर्ता 'स्मार्ट' हों। फोन तो एक उपकरण है, जो आपके आदेशों का पालन कर रहा है। अब आप पर निर्भर है कि उसके 'दास' बनते हैं या 'स्वामी'।
प्राय: कई परिवारों में स्मार्टफोन के बहुत ज्यादा इस्तेमाल से क्लेश और तनाव से लेकर तलाक़ तक की नौबत आ चुकी है। लोग घर में खाना खाते, बातचीत करते, लेटे और कभी सपरिवार बाहर गए हों तो वहां भी स्मार्टफोन में व्यस्त रहते हैं। कई बार रिश्तों में शक बढ़ने लगता है, जिसका कोई पुख्ता आधार हो सकता है या वह निराधार भी हो सकता है, लेकिन जब तक स्थिति स्पष्ट होती है, काफी नुकसान हो चुका होता है।
दफ्तरों में भी लोग काम के वक्त स्मार्टफोन चलाते मिल जाते हैं। इससे कार्यक्षमता घटती है। देशभर में ऐसे विद्यार्थियों की बड़ी संख्या है, जिन्होंने किताबों से दूरी बनाकर स्मार्टफोन का चस्का लगाया। अगर इससे उपयोगी सामग्री देखी जाए तो ठीक है, लेकिन यहां ऑनलाइन गेम, चैटिंग, मनोरंजक वीडियो ... समेत तमाम तरह की सामग्री उनका भविष्य चौपट करने के लिए मौजूद है। इस वजह से कई विद्यार्थी परीक्षा में फेल तक हुए हैं। उन्हें स्मार्टफोन की 'लत' ऐसी लगी कि छुड़ाए नहीं छूटी। कहा जाता है कि जिस तरह आजकल सार्वजनिक स्थानों, बसों आदि में नशीले पदार्थों की लत छुड़ाने के विज्ञापन नजर आते हैं, एक समय आएगा, जब स्मार्टफोन की 'लत' छुड़ाने के विज्ञापन देखने को मिलेंगे।
हालांकि यह बात हल्के-फुल्के और मजाकिया अंदाज में कही जाती है, लेकिन पश्चिमी देशों में ऐसे प्रशिक्षण केंद्र वजूद में आ गए हैं, जो खासतौर से युवाओं को स्मार्टफोन की 'लत' से छुटकारा दिलाकर खुद से और प्रकृति से जुड़ना सिखा रहे हैं। पश्चिम में टेक्नोलॉजी का भारी बोलबाला होने के बावजूद कई समस्याओं का समाधान नहीं हुआ है। वहां रिश्ते टूट रहे हैं, परिवार कमजोर हो रहे हैं। युवाओं का विवाह से भरोसा उठ रहा है। प्रबल भोगवाद की मृगतृष्णा से मन में अशांति है।
भारतीय समाज में परिवार व्यवस्था को बहुत महत्व दिया गया है। अगर परिवार सुखी होगा तो राष्ट्र सुखी होगा। अगर परिवार सशक्त होगा तो राष्ट्र सशक्त होगा। इसलिए परिवार को बचाना जरूरी है। परिवार बचेगा तो राष्ट्र बचेगा, आगे बढ़ेगा। चाहे टीवी हो या स्मार्टफोन, रोबोट हो या विज्ञान की कोई आधुनिकतम खोज, वह रिश्तों में दूरियां पैदा करने की वजह न बने। उसका विवेकपूर्वक एवं सीमित उपयोग उचित है। असीमित एवं अमर्यादित उपयोग से तो जीवनदायिनी औषधि भी विष बन जाती है।
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