संपादकीय: बाजवा का फिर ​शांतिराग

संपादकीय: बाजवा का फिर ​शांतिराग

संपादकीय: बाजवा का फिर ​शांतिराग

दक्षिण भारत राष्ट्रमत में प्रकाशित संपादकीय

कुछ दिनों से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से लेकर सेना प्रमुख तक शांतिराग अलाप रहे हैं। पाक की स्थापित परंपरा के विरुद्ध सेना प्रमुख जनरल बाजवा कुछ ज्यादा ही शांति की बातें करने लगे हैं। इस पर आश्चर्य के साथ संदेह होना स्वाभाविक है। जिस दिमाग से दिन-रात आतंकवाद फैलाने के नुस्खे निकलते हों, वहां अचानक शांति की वीणा कैसे बजने लगी? इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग में जनरल बाजवा का यह कहना कि ‘पूर्व और पश्चिम एशिया के बीच कनेक्टिविटी सुनिश्चित करके दक्षिण और मध्य एशिया की क्षमता को खोलने के लिए भारत और पाकिस्तान के संबंधों का स्थिर होना बहुत आवश्यक है’ – कोई रहस्योद्घाटन नहीं है। भारत इससे परिचित है। तो बाजवा ने नई बात क्या कही?

इसके लिए उनके शब्दों पर जाने की जरूरत है। जब बाजवा अपने मुख से प्रगति और शांति का महत्व समझा रहे थे, तो उसकी भाषा उर्दू नहीं थी। वे अंग्रेजी में संबोधित कर रहे थे। अगर बाजवा को यह बात आम अवाम और अपने आतंकवादियों को पहुंचानी होती, तो वे उस भाषा में बोलते जो उनके यहां व्यापक रूप से बोली, समझी जाती है। स्पष्ट रूप से यह संदेश पाकिस्तानियों के लिए नहीं था। यह भारत के लिए भी नहीं था। यह व्हाइट हाउस की नजरों में खुद के नंबर बढ़वाने का दांव था ताकि कर्ज के बोझ से बुरी तरह कराह रहे इस मुल्क को अगली किस्त मिल जाए।

जब कोरोना के कारण बड़ी-बड़ी अर्थव्यवस्थाएं संघर्ष कर अपना अस्तित्व बचाने में जुटी हैं तो पाक के हालात समझे जा सकते हैं, जहां पहले ही अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है। अगर हाल की कुछ घटनाओं की ओर ध्यान दें तो पाकिस्तान के रवैए में कुछ बदलाव नजर आता है। युद्धविराम समझौते पर अमल की बातें, इमरान खान द्वारा ‘पाक के साथ शांति बनाए रखने पर भारत को आर्थिक लाभ’ के सब्जबाग यह संदेह पैदा करते हैं कि यकायक पाक नेतृत्व को क्या हो गया है! क्या पाकिस्तान का हृदय सचमुच पवित्र हो गया है?

बाजवा ने इसी साल फरवरी में यह कहते हुए शांतिराग अलापा था कि ‘सभी दिशाओं में शांति का हाथ बढ़ाने का समय है’। हालांकि भारत में तब भी किसी को उनके शब्दों पर विश्वास नहीं था। बाजवा के सुरों में ऐसी नरमी पहली बार दिखी है। इससे पहले तो वे भारत के खिलाफ जहर उगलते ही दिखाई देते रहे हैं। पाकिस्तान की ओर से ऐसे विनम्र शब्दों का चयन असल में एक जाल है। इसके तहत दो मकसद हो सकते हैं।

अगर भारत उसके झांसे में आकर बातचीत की पहल शुरू कर देता है, तो एक तरफ पाक बातचीत का नाटक करता रहेगा, दूसरी ओर किसी बड़े आतंकी हमले का षड्यंत्र रचकर उसे अंजाम देने की कोशिश करेगा। अगर भारत उसके बहकावे में नहीं आता है और कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं देता है, तो वह अमेरिका और विश्व मंचों पर जाकर यह दावा करेगा कि हम तो शांतिप्रिय हैं, मसले को बातचीत से सुलझाना चाहते हैं, लेकिन भारत ही शांति स्थापना का इच्छुक नहीं है!

इस बहाने पाकिस्तान अपनी खराब अर्थव्यवस्था के नाम पर अमेरिका से कुछ डॉलर ले ही लेगा। फिर उससे आतंकवाद को परवान चढ़ाएगा। भारत को इस समय दृढ़ रहना चाहिए और पाकिस्तान को स्पष्ट कहना चाहिए कि पहले अपनी जमीन पर पलने वाले सभी आतंकी शिविर नष्ट करे, मुंबई और पुलवामा जैसे हमलों के मास्टरमाइंड हमारे हवाले करे, जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देना बंद करे, तभी भारत बातचीत पर विचार करेगा। यह पाक की पुरानी चाल है, जिससे सावधान रहना चाहिए।

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