नई पीढ़ी के आत्मघाती कदम

नई पीढ़ी के आत्मघाती कदम

छत्तीसग़ढ के बैकुंठपुर इलाके में गांव ललमटिया के रहने वाले नौ साल के बच्चे ने इसलिए फांसी लगा ली कि मां ने खाना बनाने में देर कर दी। मां कक्षा चौथी में प़ढने वाले छात्र के स्कूल में ही खाना बनाने का काम करती थी। थकी-हारी मां को शायद खाना बनाने में देरी हुई होगी, इस बीच किशोर ने खाना मिलने में देरी से क्षुब्ध होकर गले में फंदा लगा लिया। ऐसे ही क्षणिक आवेश में आंदोलनकारी छात्रों को समझाने गए फरीदकोट के जैतो में एक पुलिस उपाधीक्षक बलजिंदर सिंह संधू ने खुदकुशी कर ली। निष्ठा पर सवाल उठाए जाने से आहत डीएसपी ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर से आत्महत्या कर ली। दिल्ली की एक अन्य घटना में आईएएस की तैयारी कर रहे एक छात्र ने मकान मालिक से विवाद के बाद उसके सात साल के बेटे की गला घोटकर हत्या कर दी। वह एक महीने तक बच्चे का शव सूटकेस में डालकर अपने कमरे में रखे हुए था। ये घटनाएं विचलित करती हैं्। आखिर क्यों क्षणिक आवेश में लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं? क्यों छोटी समस्या के सामने हम बिखर जाते हैं? ऐसी घटनाओं से रोज अखबार पटे रहते हैं।ऐसा नहीं कि जिन मुद्दों को लेकर विवाद या तनाव होता है, उनका कोई समाधान नहीं होता। कहीं न कहीं परिवार संस्था या समाज में ऐसा कोई मार्गदर्शक तत्काल नजर नहीं आता जो तुरत-फुरत कारगर समाधान देकर हताशा से उबार सके। क्या ये हमारी जीवनशैली के नकारात्मक परिणाम हैं या हमारे खानपान और आबोहवा में बदलाव का नतीजा है। एक चैरिटी संस्थान ने चेतावनी दी है कि आधुनिक जीवनशैली से बच्चों के दिमा़ग पर प्रभाव प़ड रहा है। इस संस्थान का नाम है व्हॉट अबाउट द चिल्ड्रेन (वॉच)। इस संस्था का कहना है कि बच्चों को कुर्सियों पर बैठाना और स्ट्रैप लगा देना या फिर स्मार्टफोन और टैबलेट देना खेलने के लिए, ये सब बच्चों के लिए घातक साबित हो रहे हैं्। इन सबका आगे चलकर बच्चों के जीवन पर बुरा असर प़डता है। अभिभावकों को कम उम्र के बच्चों के साथ ख़ुद रहना चाहिए ताकि वह बेहतर महसूस करें और इसी से उनके दिमा़ग का अच्छा विकास होता है। कहीं न कहीं देश में लाखों किसानों की आत्महत्या को भी आवेश में लिए गए आत्मघाती कदम के रूप में देखा जाना चाहिए। क्या हम यह मानें कि भारत में नयी पी़ढी का धैर्य चुक रहा है? आखिर क्या वजह है कि संपन्नता के साथ बदलती जीवनशैली में संतोष व धैर्य जवाब देने लगा है। यह समाज विज्ञानियों के लिये चिंता का विषय होना चाहिए कि परीक्षा परिणाम आने के बाद होने वाली आत्महत्याओं को कैसे रोका जाये। इसे समाज में ब़ढ रहे घातक रुझान के व्यापक संदर्भों में भी देखा जाना चाहिए्। यह भी कि क्या संपन्नता और भौतिक सुखों की तीव्र उत्कंठा से उपजी जीवन की जटिलताएं ऐसी घटनाओं के मूल में हैं।

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