स्वदेश को मां कहने में संकोच क्यों?
'वंदे मातरम्' में मिट्टी की खुशबू और ममता का एहसास है
अपने देश को मां का दर्जा देने में कोई बुराई नहीं है
'वंदे मातरम्' के 150 साल पूरे होने पर यह गीत एक बार फिर विशेष चर्चा का केंद्र बन गया है। यह एक ऐसा दिव्य मंत्र है, जिसने स्वतंत्रता सेनानियों तथा क्रांतिकारियों में नई ऊर्जा भर दी थी। जो व्यक्ति इसे गाता है, उसके हृदय में देशप्रेम का सागर उमड़ आता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि आजादी से पहले कई लोग इसका विरोध करते थे, आज भी कुछ लोग ऐसा कर रहे हैं। जो व्यक्ति 'वंदे मातरम्' का विरोध करता है, वह न तो इसकी मूल भावना को जानता है और न ही उसे महसूस करता है। इसके विरोध में कुतर्क देने वाले कथित बुद्धिजीवी कोरे शब्दों की हेरफेर करते हैं। उनके लिए कोई देश बस जमीन का एक टुकड़ा होता है। ऐसे बुद्धिजीवी वर्ष 1947 से पहले भी खूब सक्रिय थे। वे उस जमाने में पत्र-पत्रिकाओं में लिखा करते थे- 'देश को मां का दर्जा कैसे दे सकते हैं? ... मां तो बस वही होती है, जो हमें जन्म देती है! जमीन के टुकड़े को मां कैसे मान लें?' इन प्रश्नों के कितने ही तर्कपूर्ण उत्तर दिए जाएं, जो व्यक्ति नहीं समझना चाहता, वह नहीं समझेगा। हां, जो व्यक्ति किसी खास घटना के बाद अपने देश का महत्त्व समझेगा, उसे किसी तर्क की जरूरत ही नहीं होगी। याद करें, कुछ साल पहले इराक में कई भारतीय नागरिक आईएसआईएस की कैद में थे। जब वे सकुशल स्वदेश लौटे तो उन्होंने मीडिया से बातचीत करते हुए अपने अनुभव कुछ इस तरह बताए थे- 'हम अपनी मां के पास आ गए हैं, जहां खुद को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करते हैं।' मई 2017 में एक युवती ने वाघा सीमा पार करने के बाद जब भारत की धरती पर कदम रखा तो मिट्टी को माथे से लगाया था। वह भारतीय नागरिक थी, जिसे एक पाकिस्तानी ने धोखे से बुलाकर बंधक बना लिया था। उस युवती और उसके माता-पिता से पूछें कि भारत मां है या नहीं है?
अपने देश को मां का दर्जा देने में कोई बुराई नहीं है। यह उसके प्रति कृतज्ञता जताने की कोशिश है। अगर देश सिर्फ जमीन का एक टुकड़ा होता तो क्या इतने बलिदानी आगे आते? क्या हम कभी आजाद होते? भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और ऐसे अनेक महापुरुष क्या चाहते थे? यही कि उनकी भारत मां गुलामी की बेड़ियों से आजाद हो। जिन्ना और उनके चेलों के मन में ऐसी कोई भावना नहीं थी। उनके लिए देश एक जमीन का टुकड़ा था, जिसमें से वे हिस्सा लेना चाहते थे। उन्होंने हिस्सा लिया। आज वहां हाहाकार मचा हुआ है। अगर पाकिस्तानी अपने देश को मां समझते तो उनकी ऐसी दुर्दशा नहीं होती। उन्होंने भारत से रिश्ता खत्म करने के लिए कभी अरब, कभी अफगान और कभी ईरानी बनने का स्वांग रचा। अब वे क्या बन गए, यह खुद नहीं जानते। जो लोग 'वंदे मातरम्' का विरोध करते हैं, उन्होंने ध्यान से इसका अर्थ नहीं पढ़ा होगा। अगर पढ़ा होता तो विरोध नहीं करते। इस गीत में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे किसी की धार्मिक भावनाएं आहत हों। यह गीत बहुत सुंदर शब्दों में अपने देश की दिव्यता का वर्णन करता है। बिहार के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने अस्सी के दशक में 'वंदे मातरम्' का उर्दू में अनुवाद किया था। अनुवाद की कुछ पंक्तियों- 'तू भरी है मीठे पानी से ... फल-फूलों की शादाबी से ... ठंडी हवाओं से ... तेरी मीठी बहुत ज़ुबां है ... तेरे क़दमों में मेरी जन्नत है' - को पढ़कर कोई भी विवेकशील मनुष्य समझ सकता है कि यह गीत स्वदेश प्रेम का निर्मल और उदात्त स्वर है। इसमें मिट्टी की खुशबू और ममता का एहसास है। वंदे मातरम्!

