अर्थव्यवस्था की 'ड्राइविंग सीट'
सरकारी नौकरियों की इस दौड़ में कितने युवा सफल हो पाते हैं?
यह खूब दिखाया-बताया गया कि शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य सरकारी नौकरी हासिल करना है
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने यह कहकर निजी क्षेत्र के बढ़ते महत्त्व को उजागर किया है कि वह देश की अर्थव्यवस्था की गाड़ी की ‘ड्राइविंग सीट’ पर बैठा हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं कि निजी क्षेत्र की मेहनत, कौशल और संकल्प की शक्ति से आज भारत पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। निकट भविष्य में जब यह तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनेगा तो उसमें निजी क्षेत्र का बहुत बड़ा योगदान होगा।
अगर आजादी के तुरंत बाद इस क्षेत्र को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त उपाय किए गए होते तो आज हमारा देश दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होता। दुर्भाग्य से, हमने पूर्व में कई गलतियां कीं। निजी क्षेत्र की गलत छवि पेश कर लोगों, खासकर किशोरों व युवाओं के मन में यह धारणा मजबूती से बैठा दी गई कि 'अगर आप अपनी मेहनत और पूंजी से कोई उद्यम स्थापित करते हैं, समृद्ध होते हैं तो बहुत गलत करते हैं ... क्योंकि इससे शोषण का मार्ग खुलता है!' तो शिक्षा का उद्देश्य क्या होना चाहिए?यह खूब दिखाया-बताया गया कि शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य सरकारी नौकरी हासिल करना है। जिसे सरकारी नौकरी मिल गई, उसका जीवन सफल हो गया! यह सोच आज तक मौजूद है। देश तरक्की करे, उसमें खुशहाली आए, इसके लिए बहुत जरूरी है कि निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र, दोनों को आगे बढ़ाया जाए। सरकारी कर्मचारियों ने देश की बहुत सेवाएं की हैं, वे आज भी कर रहे हैं। इसके साथ हमें यह स्वीकार करना होगा कि निजी क्षेत्र के कर्मचारियों ने भी देश की बहुत सेवाएं की हैं, वे लगातार सेवाएं कर रहे हैं।
यह तर्क सही नहीं है कि अगर देश को आर्थिक महाशक्ति बनाना है तो सिर्फ एक क्षेत्र को अहमियत मिलनी चाहिए। दोनों क्षेत्रों की अपनी-अपनी खूबियां हैं, विशेषज्ञताएं हैं, अनुभव है, लिहाजा दोनों का होना और उन्हें बढ़ावा मिलना जरूरी है। भारत के निजी क्षेत्र में बहुत सामर्थ्य है। अगर यहां बच्चों को स्कूली पढ़ाई के दिनों से ही उद्यमिता के लिए प्रेरित किया जाए तो अगले एक-दो दशकों में बहुत बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है।
स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई के बाद लाखों अभ्यर्थी वर्षों तक अपनी ऊर्जा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगाते हैं। उन पर परिवारों और रिश्तेदारों का काफी दबाव होता है। युवावस्था में सबसे बड़ी ख्वाहिश यह हो जाती है कि किसी तरह से एक सरकारी नौकरी मिल जाए!
सरकारी नौकरियों की इस दौड़ में कितने युवा सफल हो पाते हैं? थोड़े-से, वे भी कई वर्षों की मेहनत के बाद। जो युवा देशसेवा के लिए सरकारी नौकरी में जाना चाहते हैं, उन्हें जाना चाहिए, लेकिन हर युवा इसी दौड़ में शामिल हो जाए कि 'मुझे तो सरकारी नौकरी ही करनी है', यह सोच अर्थव्यवस्था को मजबूत नहीं बना सकती।
आज अमेरिका के पास इतनी शक्तिशाली कंपनियां हैं, जो नए बदलाव की वाहक हैं, उनके जरिए दुनियाभर के करोड़ों लोगों को रोजगार मिल रहा है! अगर उनके संस्थापकों के बारे में पढ़ें तो पता चलता है कि ज्यादातर तो सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि वाले परिवारों से हैं। उनके मन में एक विचार पैदा हुआ, उन्होंने उस पर काम किया, सिस्टम ने उनका सहयोग किया और वे बुलंदियों तक पहुंच गए।
वहां अपना कारोबार शुरू करना (तुलनात्मक रूप से) आसान है, जबकि भारत में (कुछ साल पहले तक और आज भी कई इलाकों में) अपनी दुकान के लिए बिजली-पानी का कनेक्शन लेना हो तो सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने होते हैं। कई जगह रिश्वत देनी पड़ती है।
होना तो यह चाहिए कि अगर किसी को छोटी-सी दुकान भी खोलनी हो तो बिजली कनेक्शन से लेकर बैंक खाता खोलने तक, सभी काम एक दिन में हो जाएं और उस व्यक्ति को कहीं चक्कर न लगाने पड़ें। जब कारोबार करना आसान हो जाएगा तो युवा इसमें रुचि जरूर लेंगे।