सीसीबी को जांच करने और आरोप पत्र दाखिल करने का पूरा अधिकार : कर्नाटक उच्च न्यायालय
दितुल मेहता ने दहेज प्रताड़ना वाले मामले में सीसीबी को जांच के अधिकार के खिलाफ याचिका दायर की थी
उच्च न्यायालय ने यह कहकर मेहता परिवार की याचिका खारिज कर दी ...
बेंगलूरु/दक्षिण भारत। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने माना है कि सिटी क्राइम ब्रांच (सीसीबी) शहर की किसी भी पुलिस स्टेशन में दर्ज किसी भी मामले की जांच कर सकती है, बशर्ते उसे मामला सौंपा गया हो, और सीसीबी पुलिस द्वारा जांच पूरी होने पर आरोप पत्र दाखिल करना सीआरपीसी की धारा 173(2) के तहत अंतिम रिपोर्ट के समान है। यह अधिकार उसको सरकार द्वारा संसूचित आधिकारिक निर्देश के तहत उपलब्ध है।
उच्च न्यायालय ने कहा है कि एक बार जब सरकार ने सिटी क्राइम ब्रांच (सीसीबी) के पुलिस अधिकारियों को बेंगलूरु में संबंधित पुलिस स्टेशनों के वरिष्ठ अधिकारियों के रूप में कानूनी रूप से सशक्त बना दिया है, तो सीसीबी पुलिस को स्वतः ही सीआरपीसी की धारा 36 के तहत जांच करने और आरोप पत्र दायर करने की शक्ति मिल जाती है। न्यायालय ने यह भी कहा कि सीआरपीसी धारा 2(ओ) की परिभाषा के अनुसार, पुलिस को यह अधिकार पुलिस स्टेशन का प्रभारी अधिकारी बनने पर मिलता है। एक थानाधिकारी को जिस प्रकार जांच अधिकारी के रूप में जांच करने और चार्जशीट पेश करने का अधिकार है उसी प्रकार सीसीबी के वरिष्ठ अधिकारी को भी उसके समकक्ष अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाता है।बता दें कि उक्त मामला दहेज उत्पीड़न से संबंधित है। न्यायालय शहर के कारोबारी दितुल मेहता, यशवंत मेहता, प्रेमलता मेहता, अनु कांकरिया एवं रक्षित कांकरिया द्वारा दायर एक याचिका पर विचार कर रहा था। उन्होंने दितुल मेहता की अलग रह रही पत्नी ईशा राज (पुत्री जोधराज) द्वारा धारा 323, 354 (ए)(बी), 498ए, 504, 506 और आईपीसी की धारा 34 एवं दहेज निषेध अधिनियम की धारा 4 के तहत दर्ज आपराधिक मामले को रद्द करने का आग्रह करते हुए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। न्यायमूर्ति के. नटराजन ने याचिकाओं को खारिज करते हुए उक्त टिप्पणी की।
यह शिकायत ईशा राज द्वारा बसवनगुड़ी पुलिस के समक्ष दर्ज कराई गई थी। बाद में बेंगलूरु शहर के पुलिस आयुक्त के निर्देश पर सीसीबी को स्थानांतरित कर दी गई। इसके बाद याचिकाकर्ताओं ने राज्य सरकार द्वारा 25 फरवरी, 2021 को जारी अधिसूचना को चुनौती दी थी, जिसमें सभी पुलिस स्टेशनों के एसएचओ को उपलब्ध शक्तियां प्रदान करके सीसीबी को जांच करने का समान अधिकार दिया गया था। यह भी दलील दी गई कि पुलिस आयुक्त के पास कर्नाटक पुलिस अधिनियम के तहत सीसीबी को जांच स्थानांतरित करने का कोई अधिकार नहीं है। याचिकाकर्ताओं की ओर से दावा किया गया कि चूंकि सीसीबी एक पुलिस स्टेशन नहीं है, इसलिए मजिस्ट्रेट उक्त एजेंसी द्वारा दायर आरोप पत्र पर संज्ञान नहीं ले सकते। हालांकि, अतिरिक्त महाधिवक्ता विक्रम हुइलगोल ने प्रस्तुत किया कि सीसीबी इस मामले की जांच के लिए लंबे समय से काम कर रही है और पुलिस अधिकारियों को जांच करने और आरोप पत्र दाखिल करने की शक्ति सौंपी गई है, जो सीआरपीसी धारा 173(2) के तहत अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने के बराबर है।
इस पर न्यायमूर्ति नटराजन ने कहा कि राज्य में सीसीबी 3 सितंबर, 1971 से काम कर रही है और 25 फरवरी, 2021 को राज्य सरकार द्वारा एक पुलिस स्टेशन के समकक्ष शक्ति प्रदान करने के लिए जारी सरकारी अधिसूचना को रातोंरात की कवायद नहीं कहा जा सकता है।
न्यायालय ने यह भी कहा कि पुलिस आयुक्त ने कर्नाटक पुलिस अधिनियम की धारा 7 के तहत राज्य सरकार द्वारा प्रदत्त शक्ति के अनुसार कार्य किया था और जांच को सीसीबी को भेज दिया।न्यायालय ने कहा कि एक बार जब सीसीबी ने अंतिम रिपोर्ट दाखिल कर दी, तो यह सीआरपीसी की धारा 173(2) के तहत पुलिस रिपोर्ट बन जाती है और इसलिए मजिस्ट्रेट को पुलिस रिपोर्ट पर सीआरपीसी की धारा 190 के तहत संज्ञान लेने का अधिकार है।
न्यायमूर्ति नटराजन ने कहा, 'इसलिए, मेरा विचार है कि सीसीबी पुलिस द्वारा की गई जांच सीआरपीसी की धारा 36 के प्रावधानों के अनुसार है और उनके द्वारा दायर आरोप पत्र टिकाऊ (विचार योग्य) है।' न्यायालय ने पाया कि आरोपी और शिकायतकर्ता, दोनों ने क्रूरता के आधार पर तलाक के मामले दायर किए थे, लेकिन परिवार अदालत ने अभी तक इन मामलों पर फैसला नहीं किया था। न्यायालय ने कहा कि तलाक के मामलों में उल्लेख की गई क्रूरता आईपीसी की धारा 498ए और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 4 में परिभाषित क्रूरता के समान नहीं है। उसने स्पष्ट किया कि तलाक के मामलों में उठाए गए मुद्दे आपराधिक कानून में उल्लेख किए गए क्रूरता के मानदंडों से मेल नहीं खाते हैं।


