शालीन और सम्मानजनक शब्द
प्रकृति के सभी रंगों में से काला रंग भी एक है, क्या उसे किसी बुराई से जोड़कर देखना उचित है?
संस्कृत, हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दकोश अत्यंत समृद्ध हैं
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा 'लैंगिक रूढ़िवाद से निपटने संबंधी पुस्तिका' को जारी किया जाना न्यायिक निर्णयों में समानता की दिशा में एक बड़ा कदम है। अगर इन शब्दों पर गौर करें तो पता चलता है कि ये वर्षों से प्रचलन में थे। सामाजिक बोलचाल के अलावा न्यायिक कार्यों में भी इनका उल्लेख होता था।
कोई शब्द कुछ अक्षरों का समूहभर नहीं होता, उसके पीछे एक इतिहास होता है, जो गहरा अर्थ देता है। कुछ शब्द तो ऐसे हैं, जो उस व्यक्ति पर प्रहार की तरह होते हैं, लेकिन वे प्रचलन में हैं। जब देश की शीर्ष अदालत उन शब्दों को लेकर गंभीरता दिखाती है तो उसका संदेश दूर तक जाता है। इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। इससे बेहतर समाज बनाने में मदद मिलेगी।आज भी समाज में ऐसे कई शब्द प्रचलित हैं, जिन्हें प्रचलन से बाहर करते हुए उनकी जगह सम्मानजनक शब्द प्रयुक्त करने की जरूरत है। आमतौर पर जब उन्हें बोला या लिखा जाता है तो इस बिंदु पर ज्यादा विचार नहीं किया जाता कि ये किसी अन्य व्यक्ति को किस तरह प्रभावित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, हाल के वर्षों में 'कालाधन' (ब्लैक मनी) शब्द बहुत पढ़ने और सुनने को मिला- 'कालाधन देश से बाहर जा रहा है', 'स्विस बैंकों से उन लोगों की सूची मंगवानी चाहिए, जिन्होंने कालाधन जमा करवाया है', 'कालाधन रखने वालों पर सरकार को कार्रवाई करनी चाहिए'।
सवाल है- प्रकृति के सभी रंगों में से काला रंग भी एक है, क्या उसे किसी बुराई से जोड़कर देखना उचित है? वह भी उस देश में, जिसके राष्ट्रपिता ने रंगभेद के खिलाफ बहुत मजबूती से आवाज उठाई थी! जब ग़लत और अनैतिक तरीके से कमाए गए, बचाए गए धन को काले रंग से जोड़ा जाता है तो वे लोग कैसा महसूस करते होंगे, जिनकी त्वचा का रंग गोरा नहीं है? हमें इस संबंध में और संवेदनशीलता दिखानी होगी।
निस्संदेह प्रकृति का हर रंग सुंदर है, लेकिन जब उनमें से किसी एक का बार-बार ग़लत कार्यों के सन्दर्भ में उल्लेख किया जाता है तो उससे इस धारणा को बल मिलता है कि बाकी रंग तो सुंदरता व अच्छाई की गारंटी हैं, बस एक रंग बुरा है! ऐसा नहीं होना चाहिए। अगर किसी बुराई का उल्लेख करना हो तो उसे बिना किसी रंग से जोड़ते हुए उसके लिए समानार्थी शब्दों के प्रयोग पर विचार करना चाहिए।
संस्कृत, हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दकोश अत्यंत समृद्ध हैं। उनमें ऐसे शब्द आसानी से मिल सकते हैं। उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी के 'ब्लैक एंड व्हाइट' के लिए 'श्वेत और श्याम' का प्रयोग बहुत सुंदर है। पश्चिमी देशों की अंग्रेज़ी वेबसाइट्स पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा से संबंधित समाचारों में 'ब्लैक' शब्द लिखा मिल जाता है। अमेरिका में 'ब्लैक लाइव्स मैटर' अभियान चला था। लोगों ने उसमें जोर-शोर से भाग लिया था। वहीं, हिंदी का 'अश्वेत' शब्द अधिक शालीन लगता है।
इसी तरह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर ‘विकलांग’ के लिए ‘दिव्यांग’ शब्द प्रचलन में आया और अब इसका प्रयोग होने लगा है। अगर हम साठ और सत्तर के दशक में प्रकाशित हिंदी (कहावतों/मुहावरों के) शब्दकोश देखें, तो उनमें ऐसे शब्द मिल जाएंगे, जिन्हें आज अत्यंत आपत्तिजनक माना जा सकता है, लेकिन तब वे प्रचलन में थे। आम लोग उन्हें बिना कोई संकोच किए बोलते थे। वर्ष 1971 के भारत-पाक युद्ध के एक वीर योद्धा का साक्षात्कार सुनें तो वे उसमें एक ऐसा शब्द बोलते हैं, जिसे आज शालीन नहीं माना जाता, लेकिन उस समय यह सामान्य बोलचाल का हिस्सा था। धीरे-धीरे ऐसे शब्दों को बदलने की जरूरत महसूस हुई और आज हम उनके स्थान पर जो शब्द बोलते हैं, वे बहुत शालीन और सम्मानजनक हैं। ऐसा ही होना चाहिए।
इससे पता चलता है कि हम अंदर से कितने संवेदनशील हैं और दूसरों की कितनी परवाह करते हैं। भगवान महावीर, बुद्ध, गुरु नानक देवजी, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद और अनेक संतों ने तो बार-बार कहा है कि हमें अपने शब्दों से भी किसी को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। तलवार का घाव भर जाता है, लेकिन शब्दों का घाव बड़ी मुश्किल से भरता है। अगर जाने-अनजाने में ऐसे शब्द प्रचलन में आ जाएं या कालांतर में उनके अर्थ बदलकर ऐसा रूप ले लें, जिनसे भेदभाव को बढ़ावा मिले या जो अशालीन प्रतीत होने लगें तो उन्हें हटा देना ही न्यायसंगत है।