सिनेमा और सबक

इस बात से तो कोई इन्कार नहीं कर सकता कि आईएसआईएस नामक खूंखार आतंकवादी संगठन पैदा हुआ था

सिनेमा और सबक

आईएसआईएस ने जो 'सब्जबाग' दिखाए थे, उनके झांसे में आकर दुनियाभर से कई लोग उसमें शामिल होने के लिए गए थे

पश्चिम बंगाल में 'द केरला स्टोरी' फिल्म के प्रदर्शन पर लगाई गई रोक हटाने संबंधी उच्चतम न्यायालय का आदेश ममता सरकार के लिए झटका है। रोक लगाने के कदम से फिल्म को न केवल कुछ प्रचार और मिल गया, बल्कि बाद में राज्य सरकार की किरकिरी भी हुई। इस फिल्म की कहानी पर सवाल उठाए जा सकते हैं। 

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अगर कहीं कोई संवाद भ्रामक है तो उसकी सच्चाई सामने लाई जा सकती है, लेकिन पूरी तरह प्रतिबंध लगा देना; वह भी तब जब यह फिल्म देश के अन्य राज्यों में प्रदर्शित की गई और वहां कानून व्यवस्था को लेकर समस्या पैदा नहीं हुई; उचित नहीं है। इस फिल्म ने एक संवेदनशील विषय को उठाया है। अगर इसमें तथ्यों संबंधी कोई कमी है तो तर्क सहित उन्हें सामने रखना चाहिए। 

इस बात से तो कोई इन्कार नहीं कर सकता कि आईएसआईएस नामक खूंखार आतंकवादी संगठन पैदा हुआ था। उसने इराक और सीरिया में भारी खून-खराबा किया था। उसने 'सजा' देने के जो तरीके इस्तेमाल किए, वे रोंगटे खड़े कर देनेवाले थे। विशेष रूप से महिलाओं के साथ बर्बरता और यौन उत्पीड़न की घटनाओं ने दुनिया को झकझोर दिया था। 

आईएसआईएस ने जो 'सब्जबाग' दिखाए थे, उनके झांसे में आकर दुनियाभर से कई लोग उसमें शामिल होने के लिए गए थे। वहां जाकर पता चला कि हकीकत कुछ और है। उनमें से कई तो अमेरिकी नेतृत्व वाले बलों के हमलों में मारे गए। जो बच गए, उनकी ज़िंदगी किसी नरक से कम नहीं थी। पीछे स्वदेश में परिजन पुलिस थानों के चक्कर लगाते रहे, एजेंसियों को जवाब देते रहे। यह सब उनके लिए काफी तकलीफदेह था। 

भारत से भी कुछ लोगों के आईएसआईएस से जुड़ाव और समर्थन की ख़बरें आई थीं। भले ही ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम थी, लेकिन भारतीय एजेंसियों ने उन्हें ढूंढ़ निकाला। जब राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा इतना बड़ा मुद्दा सामने हो तो उस पर चर्चा होनी चाहिए।

सवाल यह नहीं है कि कितने लोगों, खासतौर से महिलाओं को बहकाकर उनका धर्मांतरण कराया गया, उनके मन में खुद के धर्म के प्रति दुर्भावना पैदा की गई और उसके बाद उनका जुड़ाव किसी आतंकवादी संगठन से हो गया, बल्कि सवाल यह है कि अगर किसी एक व्यक्ति के साथ भी ऐसा हुआ तो क्यों हुआ? कोई फिल्म हू-ब-हू किसी घटना को पेश नहीं कर सकती। उसमें कल्पना भी शामिल होती है।

यह देखा जाना चाहिए कि उसमें सत्यता का अंश कितना है। हमारा देश सभी धर्मों के प्रति समान आदरभाव रखता है। यह हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। देश का संविधान हर व्यक्ति को उसके धर्म के पालन और प्रचार की अनुमति देता है। अगर कोई स्वेच्छा से अन्य धर्म को स्वीकार करना चाहे तो संविधान उसके इस अधिकार की रक्षा करता है। 

समस्या तब पैदा होती है, जब ऐसा किसी दुर्भावना के तहत किया या कराया जाए। अपने पूर्वजों के धर्म, संस्कृति, देश के संविधान, लोकतंत्र के प्रति घृणा का विष घोलकर किसी घातक एजेंडे का पोषण करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है? अगर देश में ऐसी एक भी घटना होती है तो उसे अत्यंत गंभीरता से लेने की जरूरत है। यह सोचकर उदासीनता बरती गई कि ऐसे मामलों की संख्या सौ या हजार भी नहीं है, तो यह कालांतर में देश के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है। इससे लोकतंत्र पर खतरा मंडरा सकता है। 

सवाल यह भी पैदा होता है कि ऐसे विषयों पर फिल्म बनानी चाहिए या नहीं बनानी चाहिए? तो इसके जवाब में हॉलीवुड का उदाहरण दिया जा सकता है, जिसने प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध समेत ऐसे कितने ही संवेदनशील विषयों पर फिल्में बनाई हैं। उनकी कड़ी आलोचना होती रही है, लेकिन उन फिल्मों के जरिए लोगों ने जाना कि अतीत में जो भयावह हुआ, वह कितना ग़लत था! हालांकि उनमें काफी काल्पनिक बातें होती हैं। ये फिल्में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान ... आदि कई देशों के लोग (जिनकी सेनाएं इन युद्धों में शामिल रहीं) देखते हैं तो यही महसूस करते हैं कि 'हां, उस समय जो हुआ, बहुत ग़लत हुआ, अब ऐसा नहीं होना चाहिए।' 

चाहे 'कश्मीर फाइल्स' हो या 'द केरला स्टोरी', इन्हें इसी नजरिए के साथ देखना चाहिए कि अतीत में जो अप्रिय घटनाएं हुईं, वे दोहराई न जाएं और ऐसे समाज का निर्माण किया जाए, जहां किसी के लिए भी घृणा और भेदभाव न हो।

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