गलवान पर देर से बोला चीन, वह भी झूठ
गलवान पर देर से बोला चीन, वह भी झूठ
आखिरकार चीन ने मान ही लिया कि पिछले साल गलवान घाटी में हुए संघर्ष में उसके जवान हताहत हुए हैं। हालांकि यहां भी चीन अपनी झूठ बोलने की आदत से बाज़ नहीं आया और हताहतों की संख्या सिर्फ पांच बताई है, जो कि किसी के गले नहीं उतर रही। यह सच है कि चीनी फौज ने पहले से ही हमले की योजना बना रखी थी, जिसके लिए उसके जवानों के पास नुकीले तारयुक्त डंडे थे। वहीं, भारतीय जवानों का उद्देश्य मात्र समझाइश करना था।
चीन के अचानक हमले में भारत के 20 सैन्यकर्मी वीरगति को प्राप्त हुए लेकिन जब वे वार करने पर उतर आए तो भरपूर वार किया। चीन ने अपने जवान खो कर भी चुप्पी साध ली थी। अब चीन को अपने पांच सैन्यकर्मियों की मौत की खबर आधिकारिक तौर पर देने से पहले गलवान में उन जवानों की ठीक से पहचान कर लेनी चाहिए थी जिनकी कमर और गर्दन की हड्डियां हिंदुस्तानी जवानों ने तोड़ी थीं।संभवत: चीन की हालत ग़जनी फिल्म के उस पात्र जैसी हो गई है जो कुछ समय बाद सबकुछ भूल जाता है। आखिर यह ऐलान करने में चीन को करीब आठ महीने क्यों लग गए? क्या चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंंग को आशंका थी कि कहीं जनता विद्रोह न कर दे? यूं भी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए जनभावनाओं का कोई महत्व नहीं है। उसे तो बस सत्ता चाहिए और सत्ता भी निरंकुश।
चीनी फौज का आधिकारक समाचारपत्र पीएलए डेली लिखता है कि सेंट्रल मिलिट्री कमीशन ऑफ चाइना (सीएमसी) ने उन पांच सैन्य अधिकारियों और जवानों को याद किया है जो जून 2020 में गलवान घाटी में भारत के साथ सीमा पर संघर्ष में मारे गए थे। इस मौके पर हताहत जवानों को सैन्य उपाधियों से अलंकृत किया गया।
इनमें क्वी फबाओ नामक चीनी सैन्य अधिकारी भी शामिल है जो पीएलए की शिनजियांग कमान का रेजिमेंटल कमांडर था। क्वी फबाओ को ‘सीमा की रक्षा करने वाला नायक रेजिमेंटल कमांडर’ घोषित किया गया है। इसके अलावा चेन शियानग्रांग, शियो सियुआन और वांग झुओरान को प्रथम श्रेणी की उत्कृष्टता का पुरस्कार दिया गया है। यह सम्मान सीएमसी की ओर से दिया गया है जो पीएलए की सर्वोच्च इकाई है। इसका नेतृव चीनी राष्ट्रपति करते हैं।
इस अवसर पर शी जिनपिंग से पूछा जाना चाहिए कि उनके ये जवान क्यों मारे गए? उनके लिए एलएसी पर संघर्ष और जान गंवाने की नौबत क्यों आई? इसका जवाब चीनी सरकार के उस एजेंडे में है जो अपनी भौगोलिक सीमाओं से कभी संतुष्ट नहीं होती, जिसकी गिद्ध दृष्टि हमेशा दूसरों की धरती पर रहती है। शी जिनपिंग को याद रखना चाहिए कि यह 1962 का भारत नहीं है। अब अगर कोई खुराफात करेंगे तो खूब सख्ती से जवाब मिलेगा, जिसे आपने गलवान में देख लिया है।
भारत ने पहले दिन से ही अपने जवानों की स्थिति के बारे में कोई बात नहीं छिपाई। देश ने अपने वीर सपूतों को नमन किया और सम्मानपूर्वक विदाई दी। जबकि चीन की हालत ‘काटो तो खून नहीं’ वाली थी। उसने कल्पना नहीं की थी कि भारत इस हद तक उसका जवाब देगा। गलवान में चीन अपनी पिटाई के बाद छवि चमकाने में ही जुटा रहा। चीनी फौज से लेकर सरकार के वरिष्ठ अधिकारी और मुखपत्र तक साफ-साफ कहने से कन्नी काटते रहे। दलील दी गई कि अगर असलियत बता दी तो दोनों देशों में तनाव बढ़ जाएगा।
शी जिनपिंग अपनी ‘प्रतिष्ठा’ बचाने के लिए पूर्वी लद्दाख में एलएसी पर जवानों का जमावड़ा बढ़ाते रहे, टैंक दौड़ाए, लड़ाकू विमान आसमान में चक्कर लगाने लगे। इधर, भारत ने भी जवानों की तादाद बढ़ा दी, टैंक तैनात कर दिए, लड़ाकू विमान गर्जना करने लगे। सर्दियों में चीनी जवानों की हालत पतली होने लगी। हर दिन कोई न कोई चीनी फौजी विषम भौगोलिक परिस्थितियों के बीच बेहोश होने लगा।
ये चीनी जवान, जो अपने माता-पिता की इकलौती संतान हैं, कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा, शायद ही किसी ने सैन्य अभियान में खून-खराबा देखा हो, इन्हें इनकी सरकार क्यों पथरीली जमीन पर ठंडे मौसम में झोंक रही है? अच्छा होता कि बीजिंग के किसी कारखाने में नौकरी दे देते, वहां बैठे-बैठे नामी ब्रांड्स की फर्जी कॉपी तैयार कर लेते! जंग लड़ने या दोस्ती करने के लिए मजबूत कलेजा चाहिए। वो अपने सैनिकों की मृत्यु नहीं छिपाते। चीनी जनता अपने शासकों से पूछे कि उनके बाकी हताहत जवान किस गुमनाम कब्र में कैद हैं। भारत अपने गलवान शहीदों को न कभी भूलेगा और न घटना के जिम्मेदारों को माफ करेगा।