दूरदर्शिता दिखाएं

हर दशक की अपनी कानूनी और सामाजिक जरूरतें होती हैं, जिनको ध्यान में रखते हुए सुधारों का रास्ता अपनाना चाहिए

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नेताओं को सियासी 'नफा-नुकसान' से ऊपर उठकर 'राष्ट्र प्रथम' का संदेश देना चाहिए

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा मुर्शिदाबाद जिले में चुनावी जनसभाओं को संबोधित करते हुए समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के बारे में की गई टिप्पणी में तथ्यों का अभाव तो था ही, इसमें विषय को किसी 'और ही दिशा' में ले जाने की कोशिश भी की गई। प्राय: चुनावी माहौल में नेता ऐसी टीका-टिप्पणी कर देते हैं, जो उनके दल के लिए लाभदायक सिद्ध हों, लेकिन इनमें तथ्यों का ध्यान रखते हुए कुछ दूरदर्शिता भी झलकनी चाहिए। वरिष्ठ नेताओं से तो यही आशा की जाती है। ममता बनर्जी ने उस जनसभा में भाजपा पर खूब शब्दबाण छोड़े, जो कि उनका हक है, लेकिन यह कहना कि 'यूसीसी से हिंदुओं को किसी भी तरह से फायदा नहीं होगा', ग़ैर-ज़रूरी है। क्या देश में किसी कानूनी या सामाजिक सुधार को इसी दृष्टि से देखना चाहिए कि वह एक समुदाय को फायदा देगा या नहीं? 'नफा-नुकसान' का यह गणित देश के भविष्य के लिए ठीक नहीं है। हर दशक की अपनी कानूनी और सामाजिक जरूरतें होती हैं, जिनको ध्यान में रखते हुए नए विचारों और सुधारों का रास्ता अपनाना चाहिए। सुधारों में व्यापकता होनी चाहिए। ऐसा न हो कि वे एक समुदाय तक ही सीमित रहें। उनका लाभ सभी समुदायों तक पहुंचना चाहिए। ममता बनर्जी जिस प. बंगाल की मुख्यमंत्री हैं, वह महान संतों और सुधारकों की भूमि है। स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि ने वहां जो जनजागरण किया, उसके लाभ सभी समुदायों तक पहुंचे थे। सुधारों से समाज में नई ऊर्जा आती है। बंगाल के संतों और सुधारकों ने जो तपस्या की, उसका परिणाम सबने देखा। शिक्षा का प्रसार, कुरीतियों का उन्मूलन, राष्ट्रवाद का आह्वान ... ये ऐसे दिव्य मंत्र थे, जिन्होंने बंगाल में कई क्रांतिकारी पैदा किए। भारत की स्वतंत्रता में उनका बहुत बड़ा योगदान था।

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बंगाल के उन संतों और सुधारकों के संदेश का भारत के अन्य इलाकों में भी प्रचार-प्रसार हुआ था। स्वामी विवेकानंद ने बालविवाह का विरोध किया था। उन्होंने ऐसे बच्चों के लिए विद्यालय खोलने पर जोर दिया था, जिनके माता-पिता के पास संसाधन नहीं थे। स्वामीजी ने अपने पत्रों-भाषणों में बार-बार इस बात का जिक्र किया, जिससे प्रेरणा लेकर बहुत लोग आगे आए थे। आज हम भारत में शिक्षा, समानता, महिला अधिकारों की एक उज्ज्वल छवि देख रहे हैं तो यह स्वीकार करना होगा कि ऐसा बदलाव रातोंरात नहीं आया था। इसे संभव बनाने के लिए उन संतों और सुधारकों ने अथक प्रयास किए थे। आज जब यूसीसी की बात होती है तो इस मुद्दे को दलगत राजनीति और वोटबैंक से ऊपर उठकर देखना चाहिए। क्या सामाजिक समानता लाने के लिए कानूनों का सरलीकरण नहीं किया जाना चाहिए? क्या विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने, भरण-पोषण आदि मामलों में सुधारों का मार्ग प्रशस्त नहीं होना चाहिए? क्या लोगों, खासकर महिलाओं को समान अधिकार नहीं मिलने चाहिएं? आज पूरी दुनिया भारत को बहुत आशा भरी दृष्टि से देख रही है। इस समय हमें कानूनों का सरलीकरण करते हुए सुधारों की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए या जहां हैं, वहीं जड़ जमाकर खड़े रहना चाहिए? अगर यूसीसी को लेकर किसी नेता या दल को आपत्ति है तो वह इसके बारे में जरूर बताए, लेकिन यह रवैया कहां तक उचित है कि हमें इसकी ओर कदम ही नहीं बढ़ाना चाहिए? इस पर कम-से-कम कोई बात तो हो! आपत्ति या सहमति तो बाद का विषय है। इस मुद्दे पर आम राय बनाने के लिए जनता के बीच जाएं और कहें कि हम सभी समुदायों के उत्थान के लिए यह सुधार करेंगे। नेताओं को सियासी 'नफा-नुकसान' से ऊपर उठकर 'राष्ट्र प्रथम' का संदेश देना चाहिए।

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