खुदकुशी की वजह क्या?

खुदकुशी की वजह क्या?

पिछले कुछ दिनों से हिन्दी अखबारों में रोजाना हिन्दी इलाकों में छोटे बच्चों द्वारा बेवजह या बहुत छोटी बात पर आत्महत्या करने की खबरें छप रही हैं। किसी बच्चे को पिता ने पानी लाकर न देने के लिए डांट दिया तो उसने कुएं में कूदकर जान दे दी, किसी बच्ची को मां ने स्कूल जाने कहा, तो उसने फांसी लगा ली। जब छोटे-छोटे बच्चे बहुत ही छोटी-छोटी और महत्वहीन बातों पर इस तरह आत्महत्या कर रहे हैं, तो वह महज एक पुलिस केस का आंक़डा न होकर समाज के भीतर तनाव और कुंठा का एक संकेत अधिक है। जो बच्चे फांसी लगा रहे हैं, उनके मन में इसके पीछे के तात्कालिक कारण से परे कुछ और बातें भी होती हैं, जिनसे उनका तनाव इस दर्जे का बना रहता है कि वे एक चिंगारी मिलते ही फट प़डें। यह तनाव जरूरी नहीं है कि महज जायज बातों को लेकर हो। कुछ बच्चों के मन में मोबाइल फोन की हसरत रहती है, कुछ के मन में मोटरसाइकिल की। जब ये पूरी नहीं होतीं तो तनाव आसमान तक चला जाता है। दूसरी तरफ हम अपने आसपास हर हफ्ते-पखवा़डे में ऐसे मामले देखते हैं जिनमें प्रेम-संबंधों के चलते नौजवान अकेले या जो़डे में खुदकुशी कर लेते हैं। उनमें से कुछ फंदों पर टंग जाते हैं, तो कुछ ट्रेन के सामने पटरियों पर कूदकर जान दे देते हैं। ऐसे अधिकतर मामलों में यह पता लगता है कि घरवाले नौजवानों के प्रेम-विवाह को तैयार नहीं होते और उसी निराशा में ये जो़डे आत्महत्या कर लेते हैं। आज जब अठारह बरस की उम्र के बाद हिन्दुस्तानी ल़डके-ल़डकियां अपने मर्जी से शादी कर सकते हैं, बिना शादी किए भी अपनी मर्जी से किसी के साथ कहीं जाकर रह सकते हैं, उस वक्त भी समाज का दबाव इतना अधिक रहता है कि बाग-बगीचे और तालाब किनारे पुलिस नहीं बैठने देती। समाज का नजरिया यह रहता है कि ल़डके-ल़डकियों को कहीं साथ देखें, तो अपना दूसरा काम छो़डकर उनके मां-बाप को फोन कर बताएं। इससे परे भारतीय समाज में लोगों की सेक्स की पसंद, समलैंगिकता, ट्रांसजेंडर लोगों को लेकर इतनी वर्जनाएं भरी हुई हैं कि लोग अपनी असली पसंद को सबके सामने मंजूर करने से आसन अपनी जान दे देने को समझते हैं। भारतीय समाज सांस्कृतिक रूप से समृद्ध, और सभ्य है। वहीं, हकीकत यह है कि यह समाज कुंठाओं से भरा हुआ, दमित सेक्स भावनाओं वाला एक ऐसा समाज है, जो जिंदगी को न अपने ढंग से जीना जानता, और न ही किसी और को जीने देना चाहता है। नतीजा यह होता है कि मीडिया या समाज में, घर में बच्चों के सामने होने वाली बातों से यह साफ होता चलता है कि वे अपनी जिंदगी अपनी तरह से नहीं जी सकते। ऐसे में उनकी दिमागी हालत उनको कभी दूसरों के साथ, तो कभी अपने साथ हिंसा करने पर आमादा कर देती है।

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