नौकरी पेशा लोगों से अच्छी स्थिति में हैं भिखारी
नौकरी पेशा लोगों से अच्छी स्थिति में हैं भिखारी
नई दिल्ली। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) की करीब डे़ढ प्रतिशत आबादी भिखारियों की है जिससे रोजाना आम लोगों का पाला प़डता है, लेकिन यह जानकर हैरानी होगी कि इनमें से ज्यादातर की स्थिति उन डिग्रीधारी नौकरी पेशा लोगों से काफी अच्छी है जो मेहरबानी कर उनके कटोरे में एक रुपए का सिक्का डाल आगे ब़ढ जाते हैं। गुलाब के फूलों के साथ नोएडा सेक्टर १५ मेट्रो स्टेशन के पास भीख मांगने बैठा बिहार के शिवहर जिले का २६ वर्षीय सुनील साहनी कहता है, मेरे लिए कोई व्यवसाय महत्व नहीं रखता है, क्योंकि इससे भीख मांगने का मेरा काम बाधित होता है। मैं रोजाना दो शिफ्ट में १२०० से १५०० रुपए कमा लेता हूं।सुनील इस पेशे से हर महीने ३६ से ४५ हजार रुपए कमा लेता है, जो उन्हें चंद सिक्के देने वाले नौकरी पेशा लोगों की कमाई से अधिक है। सुनील बचपन में पोलियो का शिकार हो गया था और फिलहाल वह दोनों पांव से लाचार है। उसके कंधों पर मां के अलावा छोटे भाई-बहन का जिम्मा है। वह कतई नहीं चाहता कि उसके छोटे भाई को यह दिन देखना प़डे। वह कहता है, यह कोई सम्मानजनक काम नहीं है, जब चाहे कोई भी हमें धमकाकर चला जाता है।कुछ भिखारी अपना नाम-पता जाहिर नहीं करना चाहते। गत दो वर्षों से एक मेट्रो स्टेशन के बाहर बैठने वाले दोनों हाथों से दिव्यांग अशोक (नाम परिवर्तित) इसकी वजह बताते हुए कहते हैं, एक तो मैं ब्राह्मण हूं, ऊपर से बहन की शादी भी करनी है। अगर सही पता ठिकाना छप गया तो मेरी बहन से शादी कौन करेगा?वैसे अशोक जहां बैठता है वहां सामान्य दिनों में एक घंटे की आमदनी ७० से १०० रुपए है। कोई सात-आठ वर्ष पहले थ्रेसर में हाथ चले जाने और बाद में संक्रमण के कारण उसे अपने दोनों हाथ गंवाने प़डे। इलाज में छह बीघा जमीन बिक गई और पौने १२ लाख रुपए खर्च हो गए, इसके बावजूद उसके हाथ बच नहीं सके। उसे पेट पालने के लिए भीख मांगने का विकल्प ही बेहतर नजर आया। अशोक ने अपनी मदद के लिए गांव के ही एक बेरोजगार युवक को बुलाया है। नारायण नामक युवक अब अशोक की हर जरूरत पूरी करता है और बदले में उसे मुफ्त में रहने के लिए कमरा मिला हुआ है। बीच के समय में वह अपनी रेह़डी से कुछ कमाई भी कर लेता है। नारायण ने कहा, मैं तो पूरी तरह संतुष्ट हूं। रोज १०० से २०० रुपए कमा लेता हूं, सो अलग।समाज के सबसे निचले पायदान पर जीने वाले इन व्यक्तियों को महानगरों के सौंदर्य में ग्रहण की तरह देखा जाता है। इसलिए दिल्ली को भिखमंगों से मुक्त करने की मांग विभिन्न संगठनों द्वारा लगातार की जाती रही है। वयस्क भिखारियों को भीख मांगने के अपराध में सजा होती है और नाबालिग भिखारियों को सुधार गृह का रास्ता दिखाया जाता है, लेकिन क्या इससे उनके जीवन को कोई आधार मिलता है? आज जब वर्ग, समुदाय या जाति के राजनीतिक आधार, दबाव डालने की हैसियत से प्रशासनिक सुविधाएं तय होती है, तब क्या ये भिखारी दबाव समूह की भूमिका में आ सकते हैं।एनसीआर क्षेत्र में भीख मांगनेवाले एक दिव्यांग ने इस धंधे को छो़डने का अपने परिवार का अनुरोध ठुकरा दिया। उसके चारों बेटे-बेटियां अच्छी जगह नौकरी कर रहे हैं या फिर अपने परिवार के साथ गुजर-बुसर करके सुखी जीवन जी रहे हैं। जैसा कि सुखराम (नाम परिवर्तित) कहता है, चूंकि मेरा आधार ही इसी पर टिका है इसलिए मैं मरते दम तक इस धंधे को नहीं छो़डूंगा।हालांकि इनमें जन्म के तीन वर्षों के बाद अपने दोनों पैर गंवा चुके २७ वर्षीय बिहार के सहरसा जिले का सौदागर सिंह भी है जो भीख के बजाए दूसरे धंधे को अहमियत देता है। उसने वजन मापने की एक मशीन रखी है जिससे प्रति व्यक्ति एक बार का एक रुपया लेता है। सौदागर रोजाना ५० रुपए होने के बाद संतोष कर लेता है। इसके अलावा दिल्ली के कुछ दिलदार उसके संयम के कारण उसे अलग से १०-२० रुपए दे देते हैं।देश में कुल कितने भिखारी हैं, इसके सही आंक़डे उपलब्ध नहीं हैं। ’’नारीजन’’ नामक एक स्वयंसेवी संस्था ने एक सर्वे में बताया है कि एनसीआर की तीन करो़ड आबादी में डे़ढ प्रतिशत भिखारी हैं। यह आबादी शरीर ढकने वाला वस्त्र भी भिक्षा पात्र से हासिल करती है। चिंताजनक बात यह भी है कि दिल्ली की स़डकों पर भीख मांगता बचपन या तो नशीली दवाओं का शिकार हो रहा है या अपराधियों की गिरफ्त में आ रहा है।