किसानों के कंधे पर बंदूक किसकी?

किसानों के कंधे पर बंदूक किसकी?

श्रीकांत पाराशर
समूह संपादक, दक्षिण भारत

कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के वेश में जो भी लोग आंदोलन कर रहे हैं, उनकी सरकार के साथ सातवें दौर की बातचीत भी विफल हो गई है और अब आठवें दौर की वार्ता के लिए फिर से तारीख तय की गई है 8 जनवरी। आंदोलनकारी कथित किसानों के अड़ियल रवैये से यह साफ दिखाई देता है कि आठवें दौर की बातचीत का भी हश्र वही होगा जो अब तक की वार्ताओं का हुआ है। यह विश्वास इसलिए पुख्ता होता जा रहा है क्योंकि जो लोग आंदोलन कर रहे हैं वे हर बार यही बात कह रहे हैं कि सरकार जब तक तीनों कानून वापस नहीं लेगी तब तक बातचीत का कोई हल नहीं निकलेगा, और वे इससे कम पर मानने को तैयार नहीं हैं जबकि सरकार बार बार साफ कर चुकी है कि संसद द्वारा सोच समझकर पारित किए गए कानून वह किसी भी हालत में वापस नहीं लेगी क्योंकि ये कानून पूरे देश के किसानों के हितों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं।

अगर किसानों को किसी भी कानून के किसी भी अंश पर आपत्ति है तो सरकार उस बिंदु पर बातचीत कर उसका निदान करने को तैयार है, संशोधन करने को तैयार है। लेकिन आंदलनकारी ऐसी कोई विशिष्ट आपत्ति दर्ज कराने की स्थिति में नहीं हैं। वे बिंदुवार बात करने को तैयार नहीं हैं क्योंकि वे कृषि कानूनों में कोई तथ्यपरक त्रुटि निकालने की स्थिति में नहीं हैं। उन्हें केवल रटा दिया गया है कि ये तीन काले कानून हैं और सरकार इनको वापस ले नहीं तो वे वापस घर नहीं जाएंगे। वे बार बार यही रटा रटाया बयान दोहरा रहे हैं जबकि सरकार ने साफ संकेत दे दिया है कि या तो आंदोलनकारी किसान बिंदुवार बात करें या फिर वार्ताओं का दौर चलने दें क्योंकि दिल्ली के आसपास जो कथित किसान विभिन्न बार्डर पर बैठे हैं वे पूरे देश के किसानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते।

सरकार की बात और रुख दोनों सही है। आंदोलन में पंजाब के भड़काए हुए किसानों की संख्या ज्यादा है जिन्हें वहां की कांग्रेसनीत अमरिंदर सरकार का सहयोग और समर्थन प्राप्त है। उनके साथ अकालीदल भी है जो पहले एनडीए का सहयोगी दल था और केंद्रीय मंत्रिमंडल से अकाली दल की नेता व पूर्व उपमुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरत कौर के इस्तीफा देने के बाद सोच रहा था कि मोदी सरकार घुटनों पर आ जाएगी तथा अकाली दल को एनडीए में फिर से लाने के लिए हाथपैर जोड़ेगी परंतु ऐसा कुछ हुआ नहीं। अब अकाली भी बौखलाए हुए हैं। पंजाब में उनकी साख और उनकी विभिन्न प्रकार की कमाई को झटका लगा है। कृषि कानूनों से भी उनको प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बहुत घाटा हो रहा है, इसलिए बादल परिवार तिलमिलाया हुआ है।

कांग्रेस पहले से ही बौखलाई हुई है क्योंकि चुनाव दर चुनाव देश की जनता उसे नकार रही है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी परिवार को अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई दे रहा है। उन्हें घबराहट है कि यदि ऐसे ही हालात रहे तो आने वाले समय में कांग्रेस का अस्तित्व बचाना भी मुश्किल होगा, इसलिए गांधी परिवार जी जान से अस्तित्व की लड़ाई में पसीना बहा रहा है।इसलिए कांग्रेस हो या अकाली दल, उनके लिए यह किसान आंदोलन एक ऐसा अवसर है जिसका वे अधिकतम दोहन कर लेना चाहते हैं। वे मोदी सरकार को बदनाम करने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते। उनको यह भी लगता है कि यदि सरकार इस एक मुद्दे पर कदम वापस खींच लेती है तो अन्य मुद्दों पर भी उसे ऐसे ही आंदोलनों के माध्यम से घेरा जा सकता है।

मुलायम और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और सभी वामपंथी दल भी अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं इसलिए ये खुले रूप से किसान आंदोलन के साथ हैं बल्कि यह कहना चाहिए कि कम्युनिस्टों ने तो अपनी जान झोंक रखी है। उनसे जुड़ी सभी प्रकार की यूनियन इस आंदोलन में बढचढकर हिस्सा ले रही हैं। मायावती की बसपा, लालू यादव का राजद कहीं पिक्चर में नहीं हैं क्योंकि वे इस समय हासिए से भी बाहर चले गए हैं। दिल्ली में केजरीवाल आग में घी डालने के पूरे प्रयास में हैं। वे बिना कुछ खर्च किए, बिना कुछ गंवाए कुछ न कुछ श्रेय लेने की फिराक में रहते हैं और कुछ हद तक ले भी पड़ते हैं।

कुल मिलाकर सारे मोदी विरोधी एकजुट हैं और सपना संजोये हुए हैं कि किसान आंदोलन से डर कर मोदी अपने कदम वापस लेंगे और फिर समूचा विपक्ष एक साथ उन पर चढ बैठेगा। लेकिन मोदी सरकार के तेवरों से ऐसा लगता नहीं है। मोदी के सलाहकारों और निर्णय लेने वालों ने इस आंदोलन को अधिक से अधिक समय ही इसलिए दिया है ताकि इस बीच सब तैयारियां की जा सकें तथा जनता को ठीक से कनविंस कर सकें कि सरकार सकारात्मक सोच के साथ, खुले मन से किसान आंदोलन का हल निकालने का हर संभव प्रयास कर रही है और कुछ ऐसी ताकतें इस आंदोलन के पीछे हैं जो इस आंदोलन की आग को भड़काने की कोशिश कर रही हैं। उन छिपी ताकतों का एजेंडा धीरे धीरे उजागर हो रहा है। जनता भी समझ रही है कि काजू, बादाम, पिश्ता, हलवा, पूड़ी, समोसा, कचौड़ी का लंगर खाने वाले किसान कौन हैं और इन सबके लिए पैसा कहां से आ रहा है।

जिस आंदोलन में पैरों की मालिश करने की भी मशीन का इंतजाम हो, शादी ब्याह की बारात से भी बढिया सुख सुविधाओं का इंतजाम हो वह कम से कम भारत के उन किसानों का जमावड़ा तो नहीं कहा जा सकता, जो वास्तव में अन्नदाता कहलाने का हकदार है। वह तो इस समय भी कड़ाके की सर्दी में अपने खेतों में पसीना बहा रहा है। इस आंदोलन के पीछे कुछ षड़यंत्रकारी ताकतें हैं जो देश में अराजकता और अस्थिरता पैदा करने को उतारू हैं, यह आशंका भी निर्मूल नहीं दिखाई देती क्योंकि जब सरकार सही ढंग से हर समस्या का समाधान करने को तैयार है तो वे कौन लोग हैं जो बनती हुई बात को बिगाड़ने में सफल हो जाती हैं।

देश की जनता को मोदी सरकार के साथ खुलकर आना चाहिए। इसके लिए विभिन्न प्रकार के मंचों का उपयोग होना चाहिए। मोदी के नेतृत्व में विकास के मार्ग पर देश की गाड़ी को आगे बढाने के प्रयासों को पटरी से कौन उतारने पर आमादा हैं, उनका पर्दाफाश करना चाहिए। ये कुछ हजार किसान, जिनमें न जाने कितने असामाजिक तत्व भी घुसे हुए हैं, देश के सब किसानों के प्रतिनिधि नहीं हो सकते। करोड़ों किसान इन कानूनों के पक्ष में भी हैं, उनका पक्ष भी ठीक से जनता के सामने आए, इसका इंतजाम होना चाहिए। इस आंदोलन के पीछे किसानों को बेवकूफ बनाने वाले आढतिये, भ्रष्टाचार में डूबे सरकारी अधिकारी भी सम्मिलित हैं जिनकी ऊपरी कमाई खतरे में पड़ गई है। मोदी सरकार को इन सब तत्वों के आगे नहीं झुकना चाहिए। किसानों के प्रति सहानुभूति की आड़ लेकर आढतिये, दलाल, जमाखोर, भ्रष्ट सरकारी अधिकारी अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। आवश्यकता पड़े तो इन पर कार्रवाई करने से सरकार को नहीं झिझकना चाहिए।

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