विनय-विवेक से साधु व श्रावक का जीवन निर्मल बनता है: पंन्यासश्री विमल पुण्यविजय
किलपॉक जैन संघ में प्रवचन
बहुत कुछ जानने, सुनने और देखने के बावजूद यदि दोषदृष्टि रहे तो वह आत्मकल्याण में बाधक है
चेन्नई/दक्षिण भारत। शहर के किलपॉक स्थित एससी शाह भवन में चातुर्मासार्थ विराजित पंन्यास विमल पुण्यविजयजी ने मंगलवार को धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि जीवन में विवेक आवश्यक है। बहुत कुछ जानने, सुनने और देखने के बावजूद यदि दोषदृष्टि रहे तो वह आत्मकल्याण में बाधक बनती है।
उन्होंने स्पष्ट किया कि समकिती जीव को भी उसके कर्म नीचे गिरा सकते हैं, यदि वह सद्भावना और विवेक से विहीन हो। पंन्यासश्री ने गुरु को दोष नहीं लगे, उसकी विवेचना करते हुए कहा कि श्रावकों की मर्यादा भंग होने से साधु भी आचार से गिर सकते हैं। कई बार साधु के नीचे गिरने का कारण श्रावक की अविवेकी क्रियाएं होती हैं। सम्यक दर्शन और ज्ञान पास में रहते हुए भी उन्हें जीवन में उतारने की तत्परता नहीं होती, जो आत्मविकास में बड़ी रुकावट बनती है।उन्होंने कहा कि सद्गुरु वह होता है जो भक्त की चिंता न कर भगवान की आज्ञा का पालन करे। उन्होंने समझाया कि राजा के घर से आहार ग्रहण करना राजपिंड कहलाता है। कोई भी वस्तु गुरु के सामने से ले जाना दोष की श्रेणी में आता है। इसे अभ्याहृत कहते हैं। नित्य एक घर से आहार ग्रहण करना नित्य पिंड कहलाता है। उच्च कुल से आहार ग्रहण करना कुलनिश्रा है। 50 लोगों से ज्यादा जहां भोजन बना है, वहां से आहार ग्रहण करना, वहां से बिना कारण आहार ग्रहण करना सखंडी कहलाता है। गोचरी भी अत्यंत विवेकपूर्वक होना चाहिए ताकि साधु की आचार-विरुद्ध कोई
स्थिति उत्पन्न न हो।
उन्होंने कहा कि ऐसी सोच होनी चाहिए कि मेरे कारण साधु को आचार से गिरना न पड़े। विनय, विवेक और दूरदृष्टि को गुरु भक्ति का आधार बताते हुए उन्होंने कहा कि जिनशासन में साधु और श्रावक की मर्यादाएं भिन्न हैं और इनका पालन ही सच्ची भक्ति है।
उन्होंने सचित-अचित वस्तुओं का भेद, वनस्पति की हिंसा, विराधना से बचाव तथा जीवन की शुद्धि हेतु आलोचना को आवश्यक बताया। अंत में उन्होंने प्रेरणा दी कि जैन धर्म का सार विनय और विवेक से युक्त आचरण में है, और यही साधुश्रावक दोनों के जीवन को उन्नत बनाता है। प्रवचन के दौरान पूनम कोठारी ने अट्ठाई तप के प्रत्याख्यान ग्रहण किया।


