आशा की डोर

हाल के वर्षों में मौसम का पूर्वानुमान लगाने में अधिक स्पष्टता आई है

आशा की डोर

प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला करने का एक बड़ा तरीका है- प्रकृति का संरक्षण

हमेशा की तरह, इस बार भी ‘मन की बात’ कार्यक्रम आशा, प्रेरणा और सकारात्मकता से भरपूर था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महीने के आखिरी रविवार के बजाय एक हफ्ते पहले ही देशवासियों को संबोधित किया, क्योंकि उसके बाद उनका व्यस्ततापूर्ण अमेरिकी दौरा था। 

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प्रधानमंत्री ने देश की जनता के लिए सत्य कहा है कि बड़े से बड़ा लक्ष्य हो, कठिन से कठिन चुनौती हो, भारत के लोगों के सामूहिक बल, सामूहिक शक्ति से हर चुनौती का हल निकल आता है। अभी देश के पश्चिमी छोर पर आए चक्रवात बिपरजॉय ने भारी नुकसान किया है। खासतौर से गुजरात के कच्छ में जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ, लेकिन लोगों ने जिस तरह हिम्मत और हौसले का प्रदर्शन किया, वह प्रशंसनीय है। 

कच्छ ने साल 2001 में भूकंप की भारी तबाही का सामना किया था, लेकिन उसके बाद लोगों ने जो जिजीविषा दिखाई, उसने कच्छ को नई ऊर्जा दी और वह फिर से प्रगतिपथ पर आगे बढ़ने लगा। ‘मन की बात’ से देश के अन्य राज्यों में लोगों को पता चला कि चक्रवात के बाद कच्छ के लोगों ने अपना नया साल आषाढ़ी बीज भी मनाया। इसे वहां वर्षा की शुरुआत का समय माना जाता है। 

वास्तव में आषाढ़ी बीज का संदेश बहुत गहरा है। यह सृजन और नवनिर्माण की बात कहता है। आंधी-तूफान और प्राकृतिक आपदाएं आती-जाती रहेंगी, लेकिन हमें आशा की डोर नहीं छोड़नी है, सृजन करते जाना है। निस्संदेह प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का बस नहीं चलता। बड़े से बड़े साधन संपन्न देशों में भी प्राकृतिक आपदाएं आती हैं, जिससे जनजीवन प्रभावित होता है। कुछ दशक पहले भारत में प्राकृतिक आपदाओं में बहुत जनहानि होती थी।

हाल के वर्षों में मौसम का पूर्वानुमान लगाने में अधिक स्पष्टता आई है। इससे बहुत लोगों का जीवन बचाया गया है। इसका श्रेय हमारे वैज्ञानिकों को जाता है, जिनके ज्ञान व परिश्रम का लाभ पूरे देश को मिल रहा है। अब मौसम संबंधी महत्त्वपूर्ण जानकारी मोबाइल फोन पर 'मैसेज' के रूप में मिल जाती है। कुछ शब्दों के इस संदेश के पीछे वैज्ञानिकों की वर्षों की मेहनत है। इसरो द्वारा अंतरिक्ष में छोड़े गए उपग्रह पल-पल की जानकारी भेज रहे हैं। 

वहीं, आज भी कुछ लोग यह 'तर्क' देते मिल जाते हैं कि अंतरिक्ष अनुसंधान पर इतना खर्च क्यों किया जा रहा है, जबकि हमें तो धरती पर रहना है! यह खर्च इसलिए किया जा रहा है, ताकि देशवासियों का जीवन अधिक सुरक्षित और आसान बनाया जा सके। 

प्रधानमंत्री ने उचित ही कहा है कि 'प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला करने का एक बड़ा तरीका है- प्रकृति का संरक्षण ... आजकल मानसून के समय में तो इस दिशा में हमारी ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है ... इसीलिए आज देश ‘कैच द रैन’ जैसे अभियानों के जरिए सामूहिक प्रयास कर रहा है।' आज भूगर्भीय जल का स्तर नीचे जा रहा है। कई इलाकों में पेयजल संकट गहरा गया है। हमें इस चुनौती से पार पाना होगा।

ईश्वर ने हमारे देश को कई वरदान दिए हैं। बस जरूरत है उन्हें समझने और विवेकपूर्वक कार्य करने की। अभी मानसून का समय है। देश के विभिन्न राज्यों में बरसात हो रही है। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि इसकी एक-एक बूंद का सदुपयोग करें, उसे सहेजें। घरों और बड़ी इमारतों की छतों के बरसाती पानी को इकट्ठा करें। 

ऐसा प्रबंध करें कि वह नालियों में बहकर सड़कों पर न जाए, उससे कीचड़ न हो, बल्कि वह धरती में जाए। उसके लिए आसान रास्ता तैयार करें। सरकारें इस कार्य में सहयोग करें। अगर देशवासी इसे मुहिम की तरह लें तो जल संकट का प्रभावी समाधान हो सकता है।

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