खेलकूद को बढ़ावा

दुनिया में दूसरी बड़ी आबादी के बावजूद पदक लाने में पीछे हैं

खेलकूद को बढ़ावा

ऐसे खिलाड़ियों की खबरें शेयर होती रहती हैं, जो पदक लेकर आए, लेकिन बाद में सरकारों ने उनकी सुध नहीं ली

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के बस्ती में आयोजित 'सांसद खेल महाकुंभ' के उद्घाटन के अवसर पर अपने संबोधन में उचित ही कहा है कि 'खेलों को 'टाइम पास' का जरिया समझने की मानसिकता से देश को नुकसान हुआ है।' खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में देश को कई बार गौरवान्वित किया है, लेकिन इस सोच को लेकर लोगों के नजरिए में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। निस्संदेह पढ़ाई-लिखाई का बहुत महत्त्व है। 

आज मनुष्य ने हर क्षेत्र में इतनी प्रगति की है तो उसके पीछे पढ़ाई-लिखाई की बहुत बड़ी भूमिका है, लेकिन खेलों के महत्व को कम आंकना उचित नहीं है। महामनीषी स्वामी विवेकानंद युवाओं को अध्यात्म का संदेश देने के साथ खेलकूद के लिए भी प्रोत्साहित करते थे। उनका मानना था कि स्वस्थ शरीर और प्रसन्न मन से कोई व्यक्ति ईश्वर की आराधना भी बेहतर ढंग से कर सकता है और देश की प्रगति में ज्यादा योगदान दे सकता है। बात सही है। आज इस संदेश को आत्मसात् करने की आवश्यकता है। 

जब नीरज चोपड़ा ने टोक्यो ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीता तो देश में इस बात को लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो गई थी कि सरकारों ने खेलकूद को अधिक महत्त्व क्यों नहीं दिया। अगर इस दिशा में कुछ ठोस किया होता तो भारतीय खिलाड़ी और पदक लेकर आने का दमखम रखते हैं। निस्संदेह इन स्पर्धाओं में सभी खिलाड़ियों की मेहनत काबिले-तारीफ रही है, चाहे उन्होंने मेडल जीता हो या न जीता हो। आज जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रीय और सामाजिक स्तर पर खेलों को बढ़ावा देने के लिए गंभीरता से प्रयास होने चाहिएं।  

अक्सर हम पर यह व्यंग्य किया जाता है कि दुनिया में दूसरी बड़ी आबादी के बावजूद पदक लाने में पीछे हैं। लगभग इतनी ही आबादी चीन की है, जो ओलंपिक समेत विभिन्न अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में अमेरिका को टक्कर देता है। जापान, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, नीदरलैंड समेत दर्जनों देश, जो आबादी के लिहाज से हमसे बहुत पीछे हैं, वे काफी मेडल लेकर आते हैं। 

अगर वे ऐसा कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं कर सकते? आखिर कमी कहां रह गई? वास्तव में कमी दो स्तर- सरकारी और सामाजिक स्तर पर रही है। खेलों को प्रोत्साहन देने के लिए सरकारों का रवैया अधिक उत्साहजनक नहीं रहा है। समाज की ओर से भी कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता है। हमने कामयाबी के जो मापदंड बना लिए हैं, उनके मुताबिक जो बच्चा खेलकूद में दिलचस्पी रखता है, वह परिवार की अपेक्षाएं पूरी नहीं कर सकता है। 

हमने कहावतें भी बना लीं- पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब और खेलोगे-कूदोगे तो ... ! कई बच्चों को यह कहावत ताने के तौर पर सुनाई जाती है। जो बच्चा भविष्य का 'ध्यानचंद' हो सकता है, उसे यह मानसिकता कितना हतोत्साहित करेगी? समाज खेलों को गंभीरता से लेता ही नहीं। उसके लिए खेलकूद कुछ समय के मनबहलाव का साधन मात्र हैं। इसमें कमाई की सुनिश्चितता नहीं है। परिवार को भी डर रहता है कि कहीं खेलों में कुछ नहीं कर सका और पढ़ाई में फेल हो गया तो क्या करेगा? 

सोशल मीडिया पर ऐसे खिलाड़ियों की खबरें शेयर होती रहती हैं, जो पदक लेकर आए, लेकिन बाद में सरकारों ने उनकी सुध नहीं ली। फिर मजबूरन किसी को ठेला लगाना पड़ा तो कोई मजदूरी करने लगा। यह परिदृश्य बदलना चाहिए। खिलाड़ियों को बेहतर प्रशिक्षण, सुविधाएं मिलने के साथ ही उनका भविष्य सुरक्षित होना चाहिए। जब खिलाड़ी को अपना भविष्य सुरक्षित नजर आएगा तो वह पूर्ण मनोयोग से अभ्यास करेगा और पदक लाकर तिरंगे का मान और बढ़ाएगा।

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