गोरखालैंड की मांग
गोरखालैंड की मांग
पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग को पूरे विश्व में चायबागानों और प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है। पिछले कुछ दिनों से पूरे क्षेत्र में अशांति फैली हुई है, एक अलग गोरखालैंड की पुरानी मांग फिर ता़जा हो गयी है। पिछले कई दशकों से गोरखालैंड बनाने की आवाज उठती रही है, हालाँकि इस मुद्दे को बार-बार दबाया जाता रहा, यह मुद्दा क्षेत्र में अशांति ़फैलाने के लिए काफी है और बार-बार अलग-अलग पार्टियां अपने राजनैतिक फायदों के लिए इस मुद्दे को ब़ढावा देती रहीं हैं। अपनी जरूरतों के अनुसार पार्टियों ने इस मुद्दे का शोषण किया है। देश में बहुत से मामले ऐसे हैं, जिनका स्थायी समाधान निकले तो जनता का जीवन आसान हो जाए, लेकिन समस्या बनी रहे तो राजनीतिक दलों के लिए सुविधा जुटाने का काम करती रहे। गोरखालैंड की मांग ऐसा ही एक मुद्दा है। अंग्रेजों के वक्त दार्जलिंग सिक्किम का हिस्सा होता था, लेकिन बाद में उसका विलय बंगाल में कर दिया गया। हालांकि दार्जलिंग में बांग्ला संस्कृति के दर्शन नहीं होते हैं। यहां के निवासी खान-पान, पहनावे, हर बात में खुद को बंगालियों से अलग मानते हैं। इसलिए हाल ही में जब ममता बनर्जी सरकार ने अधिसूचना जारी की कि सारे स्कूलों में १०वीं तक बांग्ला भाषा प़ढाना अनिवार्य किया जाए, तो गोरखालैंड की दबी चिंगारी को भ़डकने का मानो मौका मिल गया।गोरखालैंड की मांग करने वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने दार्जिलिंग और कलिम्पोंग जिलों में विरोध प्रदर्शन किए और बंद का आह्वान किया। बुधवार को जीजेएम प्रमुख बिमल गुरुंग ने गोरखालैंड आंदोलन को और तेज करने की धमकी दी है। उन्होंने न केवल सरकारी और गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन के दफ्तरों में अनिश्चिकालीन बंद का आह्वान किया बल्कि सैलानियों से निवेदन भी किया है कि वे दार्जिलिंग की यात्रा पर न आएं क्योंकि उन्हें दिक्कतों का सामना करना प़ड सकता है। कश्मीर की तरह ही दार्जलिंग के निवासी ब़डी संख्या में आजीविका के लिए पर्यटन व्यवसाय पर निर्भर हैं। ऐसे में विमल गुरुंग का यह धमकी स्वरूप निवेदन कितना उचित है, इस पर विचार होना चाहिए। बहरहाल, यह गौरतलब है कि ममता बनर्जी ये स्पष्टीकरण दे चुकी हैं कि पहा़डी क्षेत्रों के लिए बांग्ला अनिवार्य करने का आदेश अनिवार्य नहीं है बल्कि चुनने की आजादी है, लेकिन गोरखा जनमुक्ति के नेता इसके लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें इस वक्त अलग राज्य की मांग उठाने में राजनीतिक लाभ दिख रहा है। जीजेएम बंगाली भाषा के विरोध के जरिए अलग राज्य की मांग के लिए आंदोलन तेज करना चाहता है। इसमें उसे सत्तारू़ढ तृणमूल कांग्रेस की सहयोगी गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट का साथ भी मिल रहा है। वाममोर्चे की सरकार भी इसके विरोध में थी और तृणमूल कांग्रेस का भी रुख वही है। पर्यटन और चाय के कारोबार से होने वाली मोटी आय को कोलकाता आसानी से कैसे छो़ड दे, जबकि केंद्र के सामने दुविधा यह है कि वह प. बंगाल सरकार को नाराज करने का जोखिम नहीं उठाना चाहती, उसे बांग्लादेश के साथ संबंधों के निर्वहन में प.बंगाल की जरूरत होती है। एनडीए सरकार के वक्त उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसग़ढ राज्य का गठन हुआ था, इसलिए गोरखालैंड के समर्थकों को मौजूदा केंद्र सरकार से उम्मीद हो सकती है कि वह शायद उनके पक्ष में सोचे। लेकिन अब तक मोदी सरकार का मंतव्य इस बारे में सामने नहीं आया है। हां, पूर्वोत्तर राज्यों में सरकारों के गठन के बाद प. बंगाल में सत्ता हासिल करने की भाजपा की महत्वाकांक्षा जगजाहिर है। आजादी से भी पुरानी गोरखाओं की अलग राज्य की मांग से निपटने के लिए ममता बनर्जी ने गोरखा लैंड एग्रीमेंट का उपाय निकाला था।