भोले की नगरी में कर्नाटक की सुगंध, मैसूरु से है काशी का गहरा रिश्ता
काशी नरेश ने मंडप और उसके आसपास की जमीन मैसूरु महाराजा को देने की पेशकश की थी
वाराणसी/दक्षिण भारत। काशी सनातन धर्म में सबसे ज्यादा पवित्र समझे जाने वाले स्थानों में से एक है। इसका उल्लेख विभिन्न प्राचीन ग्रंथों और कथाओं में मिलता है। यह शहर गंगा और ज्ञान के केंद्र के तौर पर जाना जाता है। इसकी एक पहचान शिक्षा और बौद्धिक चर्चा के केंद्र के रूप में भी है।
इस शहर से मैसूरु के पूर्व महाराजा नलवाड़ी कृष्ण राजा वाडियार (शासनकाल 1895-1940 ई.) का गहरा संबंध रहा है। इतिहासकारों के अनुसार, राजा वाडियार 16 बार काशी आए थे। वे जन्मदिन पर अपने संस्कृत शिक्षक को श्लोकयुक्त पत्र लिखा करते थे।उन्होंने काशी विश्वनाथ पर श्लोक की रचना की थी, जिन्हें विश्वनाथ मंदिर में उनकी तस्वीर के ऊपर प्रदर्शित किया गया था। साल 1915 की शुरुआत में हनुमान घाट का एक हिस्सा महाराजा द्वारा खरीदा गया। इसके बाद उसका नाम मैसूर घाट कर दिया गया। फिर यह कर्नाटक घाट कहलाया। घाट के पास ही धर्मशाला बनाई ताकि उनके राज्य से आने वाले तीर्थयात्रियों को सुविधा हो।
दिलचस्प कहानी
इसके लिए जमीन खरीदने के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। महाराजा नदी में स्नान करने के बाद, सुबह से शाम तक हनुमान घाट के किनारे पत्थर के मंडप में ध्यान का अभ्यास करते थे। एक दिन जैसे ही वे खड़े हुए, उन्होंने महसूस किया कि उनका सिर मंडप की छत को छूता है जिससे खड़े होने में दिक्कत होती है।
उन्होंने इसे एक दैवीय संकेत के तौर पर लेते हुए काशी महाराजा बहादुर सर प्रभु नारायण सिंह को पत्र लिखकर मंडप में सुधार करने की अनुमति मांगी। इसके बदले काशी नरेश ने मंडप और उसके आसपास की जमीन मैसूरु महाराजा को देने की पेशकश की।
मुफ्त जमीन से इन्कार
इससे मैसूरु नरेश खुश हुए। जब उन्होंने जमीन की कीमत के बारे में पूछा तो काशी नरेश ने इसे मुफ्त में देने की बात कही। हालांकि, राजा वाडियार ने मुफ्त जमीन लेने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि वे एक क्षत्रिय हैं, इसलिए मुफ्त जमीन लेना उनके सिद्धांतों के खिलाफ है।
दोनों राजाओं में बातचीत के बाद मैसूरु नरेश ने 30,000 रुपए देकर यह जमीन खरीदी, जिसका क्षेत्रफल करीब 0.29 हेक्टेयर है। यहां दक्षिण भारतीय वास्तुकला से इमारत बनाई गई जो सबका ध्यान आकर्षित करती है।
ज्ञान के साधक
नलवाड़ी कृष्ण राजा वाडियार का काशी से जुड़ाव केवल आध्यात्मिकता तक सीमित नहीं था। वे ज्ञान के भी साधक थे। उनका नाम संस्कृत के उच्चकोटि के विद्वानों में शामिल था। इसलिए उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के पहले चांसलर की जिम्मेदारी भी सौंपी गई। उन्होंने 19 जनवरी, 1919 को इंजीनियरिंग कॉलेज भवन का उद्घाटन किया था। उन्हें 28 दिसंबर, 1937 को बीएचयू द्वारा मानद डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया।
देश-दुनिया के समाचार FaceBook पर पढ़ने के लिए हमारा पेज Like कीजिए, Telagram चैनल से जुड़िए