महागठबंधन के सामने कितनी चुनौतियां?
राजद के पास तेजस्वी के अलावा कोई विकल्प नहीं है
तेज प्रताप यादव अपनी ढफली पर अपना राग गा रहे हैं
महागठबंधन ने बिहार विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिए तेजस्वी यादव को अपना उम्मीदवार घोषित कर ही दिया। हालांकि यह कोई अप्रत्याशित फैसला नहीं था। इस राज्य में कांग्रेस का मजबूत जनाधार नहीं है। वाम दलों की स्थिति उससे भी कमजोर है। विकासशील इन्सान पार्टी को दूसरे दलों के सहारे की दरकार है। बच गया राजद, तो उसके पास तेजस्वी के अलावा कोई विकल्प नहीं है। तेज प्रताप यादव खुद की पार्टी बनाकर अपनी ढफली पर अपना राग गा रहे हैं। तेजस्वी के चेहरे के साथ विधानसभा चुनाव लड़ रहे महागठबंधन के लिए कुछ फायदे हैं, तो कई चुनौतियां भी हैं। चुनावों में नए और युवा चेहरे को लेकर एक आकर्षण होता है। तेजस्वी को मैदान में लाकर महागठबंधन ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि हम युवाओं को आगे बढ़ाना चाहते हैं। लालू यादव के ये बेटे मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर भले ही नए हों, लेकिन राजनीति में नए नहीं हैं। ये वर्ष 2010 से राजद के लिए खुलकर प्रचार कर रहे हैं। बिहार के उपमुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। तेजस्वी यादव अपने भाषणों में राजद के परंपरागत वोटबैंक को साधने पर खासा जोर देते हैं। ऐसे कई इलाके हैं, जहां महागठबंधन को लालू यादव की राजनीतिक विरासत का फायदा मिल सकता है। वहीं, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जद (यू) के वर्षों से सरकार चलाने के कारण सत्ताविरोधी लहर होना स्वाभाविक है। तेजस्वी इसका फायदा उठाने की कोशिश भी कर रहे हैं। उनके समर्थक उन्हें भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखने लगे हैं। कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ गया है।
तेजस्वी यादव बिहार के लोगों की ज़िंदगी में बदलाव लाने के लिए चाहे जितने बड़े वादे करें, वे राजद शासन के अनुभवों से पीछा नहीं छुड़ा सकते। मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग उस दौर को देख चुका है, जब राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति बहुत खराब हो गई थी। आम जनता लूट, हत्या, अपहरण, डकैती, रंगदारी से त्रस्त थी। उद्योगों ने बिहार छोड़कर अन्य राज्यों की राह पकड़ ली थी। आम लोगों के पलायन का सिलसिला आज तक जारी है। बिहार में कई मतदाता इसलिए भी राजद के खिलाफ वोट देते हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि नब्बे के दशक का वही 'जंगल राज' लौट आए। लालू यादव के परिवार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। चारा घोटाले ने लालू यादव की राजनीतिक छवि को काफी नुकसान पहुंचाया था। अब आईआरसीटीसी मामले में तेजस्वी यादव लपेटे में आ चुके हैं। इससे उनके विरोधियों को मौका मिल गया है। जन सुराज के प्रमुख प्रशांत किशोर उनकी शैक्षणिक योग्यता पर निशाना साधते रहते हैं। तेजस्वी हर परिवार को सरकारी नौकरी देने का ऐसा वादा कर चुके हैं, जो राज्य की आर्थिक स्थिति के बूते से बाहर है। उन्होंने सभी संविदा कर्मचारियों को स्थायी करने और जीविका दीदियों का वेतन 30 हजार रुपए प्रतिमाह करने की बात कहकर उम्मीदें जरूर जगा दी हैं, लेकिन इतना बजट कहां से आएगा, इसका उनके पास कोई जवाब नहीं है। किसी भी राजनीतिक गठबंधन में दलों और नेताओं की महत्वाकांक्षाएं होती हैं। महागठबंधन में ऐसे कई नेता हैं, जो शिक्षा और अनुभव के मामले में तेजस्वी से बहुत आगे हैं। क्या वे उनका नेतृत्व स्वीकार करेंगे? यह एक बड़ा सवाल है। भाजपा और जन सुराज के नेता राजद के पिछले वादों की स्थिति और रिकॉर्ड को मुद्दा बनाकर खूब शब्दबाण छोड़ रहे हैं। तेजस्वी उनसे कितने सुरक्षित रह पाएंगे और उनका रथ तमाम बाधाओं को पार करेगा या बीच रास्ते में ही थम जाएगा - यह तो वक्त ही बताएगा। इतना तय है कि इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में योद्धाओं के तरकश से ऐसे तीर निकलेंगे, जो पहले कम ही नजर आए थे।

