जैन काशी के नाम से कभी कोप्पल था प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र: विमलसागरसूरीश्वर

'जो इतिहास से नहीं सीखते, वे कभी महान इतिहास की रचना नहीं कर सकते'

जैन काशी के नाम से कभी कोप्पल था प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र: विमलसागरसूरीश्वर

'उत्तर कर्नाटक आज विलुप्त हो चुके यापनीय जैन संप्रदाय का तब प्रमुख कार्यक्षेत्र था'

गदग/दक्षिण भारत। यहां शनिवार को आचार्य विमलसागरसूरीश्वर जी ने कहा कि गहरी निष्ठा और बलिदानों के बलबूते पर इतिहास बनते हैं। इतिहास से हर व्यक्ति को शिक्षा और प्रेरणा लेनी होती है। जो इतिहास से नहीं सीखते, वे कभी महान इतिहास की रचना नहीं कर सकते। कभी उत्तर कर्नाटक के चालुक्य और विजयनगर साम्राज्य के युग में कोप्पल सुप्रसिद्ध जैन तीर्थक्षेत्र था। उसे जैन काशी कहा जाता था। 

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उस युग में कोप्पल व उसके आसपास होसपेट, हंपी, लक्कुंडी, कुकनूर, लक्ष्मेश्वर, सिरहट्टी, मुनिरबाद, आनेगल, गदग आदि क्षेत्रों में 777 जैन मंदिर अवस्थित थे। लोग दूर-दराज के इलाकों से तीर्थयात्रा करने कोप्पल आया करते थे। उत्तर कर्नाटक आज विलुप्त हो चुके यापनीय जैन संप्रदाय का तब प्रमुख कार्यक्षेत्र था। कोप्पल, गदग और धारवाड़ उनके मुख्य केंद्र थे। यहां उनकी विशाल ज्ञानशालाएं कार्यरत थीं। 

इन क्षेत्रों में यापनीय जैन श्रमणों द्वारा अनेक ऐतिहासिक ग्रंथों की रचनाएं हुई। चालुक्य और विजयनगर साम्राज्य के राजाओं पर यापनीय जैन श्रमणों का अतुल प्रभाव था। ज्ञान और सरस्वती की साधना के कारण कोप्पल जैन काशी कहलाता था। 

प्राचीन शिलालेखों और प्रशस्तियों से इन तथ्यों की पुष्टि होती है। उस काल में कोप्पल में तेर के नाम से बहुत बड़ी वार्षिक रथयात्रा का आयोजन होता था। वहां विशेष रूप से रथयात्रा के लिए तीर्थंकरों की मनोहारी प्रतिमाओं से सुसज्जित सात मंजिला भव्य रथ बनाया जाता था। उस भक्तिमय आयोजन में लाखों लोग भाग लेते थे।

राजस्थान जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ के तत्वावधान में जीरावला पार्श्वनाथ सभागृह में धर्मसभा को संबोधित करते हुए जैनाचार्य ने कहा कि यापनीय संप्रदाय के युग में उत्तर कर्नाटक सचमुच पुण्यभूमि रहा है। सत्वशाली साधक आत्माओं की उपस्थिति के बिना कभी कोई भूमि पुण्यभूमि नहीं बनती। सुख-शांति और उन्नति के लिए हमारा क्षेत्र पुण्यभूमि होना चाहिए। 

विजयनगर साम्राज्य भारतवर्ष के सर्वाधिक श्रीमंत राज्यों में एक रहा है। हंपी इसकी राजधानी थी। वहां बिना दरवाजे और बिना ताले के हीरे की दुकानें होती थीं फिर भी कोई चोरी-डकैती नहीं होती थी। सोचिए कि प्रमाणिकता का वह कैसा युग था और आज मनुष्य की ईमानदारी का ग्राफ कितना नीचे पहुंच गया है।

ग्रंथों में ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि विजयनगर साम्राज्य के विनाश के बाद भी यहां वर्षों-वर्षों तक हीरे और अन्य रत्न नदी में बहते हुए आते थे और लोग उन्हें प्राप्त करने के लिए नदी की माटी को उंडेलते थे। ऐसी समृद्धि शायद कहीं नहीं देखी गयी। यह इस धरा का सौभाग्य था।

गणि पद्मविमलसागर जी ने बताया कि रविवार को गदग में पूजायात्रा का यादगार आयोजन होने जा रहा है। एक हजार से अधिक श्रद्धालु पूजा-अर्चना के विशिष्ट परिधान में चार जिनालयों की पैदल परिक्रमा करेंगे। आसपास के अनेक गांवों-नगरों के सैकड़ों श्रद्धालु भी इस अभूतपूर्व आयोजन में सम्मिलित होने गदग पहुंच रहे हैं। जैन व हिंदू परंपरा में मंदिरों की भक्तिमय परिक्रमा का अत्यधिक महत्व है।

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