हमारी भाषाएं, हमारा गौरव

अपनी भाषाओं के प्रति वह सम्मान हम व्यक्त नहीं कर पाए, जिनकी ये हकदार हैं

हमारी भाषाएं, हमारा गौरव

अगर हम अपनी भाषाओं का महत्त्व नहीं समझेंगे तो और किससे आशा रखनी चाहिए? 

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उचित ही कहा है कि 'अपनी भाषा के कमतर होने की मानसिकता से बाहर आना होगा। .. बच्चे मातृभाषा में ही बेहतर ढंग से सोच सकते हैं।' आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हमारी भाषाओं के प्रति यह मानसिकता गहराई तक समाई हुई है। वास्तव में इसकी जड़ें आक्रांताओं के दौर से शुरू होती हैं। 

भारत में ब्रिटिश शासन मजबूत होते-होते हमारे मन में यह बात मजबूती से बैठाने की कोशिश की गई कि 'असल ज्ञान तो अंग्रेजी में ही है, भारतीय भाषाएं इस योग्य नहीं कि उनमें उच्च शिक्षा दी जा सके।' देश ने अंग्रेजी राज से मुक्ति पा ली, लेकिन अपनी भाषाओं के प्रति वह सम्मान हम व्यक्त नहीं कर पाए, जिनकी ये हकदार हैं। 

यहां हमारा अंग्रेजी भाषा से कोई विरोध नहीं है। जहां उसकी जरूरत हो, अनिवार्यत: सीखनी चाहिए, लेकिन हिंदी समेत समस्त भारतीय भाषाओं को कमतर आंकना उचित नहीं है। अगर हम अपनी भाषाओं का महत्त्व नहीं समझेंगे तो और किससे आशा रखनी चाहिए? 

देश ने आज़ादी के कई दशक देख लिए, लेकिन वर्षों तक हिंदी में चिकित्सा विज्ञान की किताबें नहीं आईं। पिछले साल मध्य प्रदेश में चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई की हिंदी में शुरुआत का उल्लेखनीय कदम उठाया गया तो सोशल मीडिया पर कई भ्रांतियां फैलाई जाने लगीं। एक वर्ग है, जिसकी 'दलील' है कि चिकित्सा, इंजीनियरिंग आदि की पढ़ाई हिंदी में हो ही नहीं सकती। 

क्यों नहीं हो सकती? इसका कोई ठोस जवाब उसके पास नहीं है। बस यही कहा जाता है कि इन विषयों में कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनका हिंदी या भारत की अन्य भाषाओं में समानार्थक शब्द नहीं है, चूंकि इस तरह का कोई अनुवाद नहीं हुआ है।

सवाल है- जब अनुवाद हुआ ही नहीं तो हिंदी/भारतीय भाषाओं में उपयुक्त शब्द कहां से आएंगे? इसलिए जरूरी है कि पहले अच्छे अनुवाद हों। देश में कई विद्वान हैं, जो यह कार्य भलीभांति कर सकते हैं। एक बार जब अच्छे अनुवाद आ जाएं तो फिर इन विषयों की पढ़ाई हमारी भाषाओं में कराने से क्या हानि है? ऐसा होना ही चाहिए। 

इस दावे में कोई दम नहीं है कि उच्च शिक्षा सिर्फ अंग्रेज़ी में संभव है। अगर ऐसा होता तो फ्रांस, जर्मनी, इटली, रूस, चीन, यूक्रेन, दक्षिण कोरिया, इजराइल जैसे देशों में महाविद्यालय, विश्वविद्यालय होने ही नहीं चाहिए थे! भारतीय भाषाओं में भी सभी विषयों की पढ़ाई संभव है। बस इसके लिए पहले हमें बुनियादी ढांचा मजबूत करना होगा। अनुवादों की गुणवत्ता पर जोर देना होगा। 

डेढ़ दशक पहले, जब इंटरनेट की पहुंच शहरों तक सीमित थी और ग्रामीण क्षेत्रों में इसे दुर्लभ माना जाता था, तब इस पर अंग्रेजी का बोलबाला था। आज यहां हिंदी और भारतीय भाषाओं का डंका बज रहा है। जिस कंपनी को वेबसाइट के जरिए यहां कारोबार करना है, उसे भारतीय भाषाओं में संस्करण उपलब्ध कराने ही होंगे। ये वेबसाइट्स अंग्रेजी में चल रही हैं और भारतीय भाषाओं में भी चल रही हैं। 

यह कैसे संभव हुआ? इसके लिए कोशिशें की गईं। भारतीय भाषाओं की आसान टाइपिंग के टूल पेश किए गए। जनता ने इसे हाथोंहाथ लिया। अगर उस समय मन में यह धारणा बैठा लेते कि इंटरनेट पर तो सिर्फ़ अंग्रेज़ी चल सकती है, भारतीय भाषाओं में यह संभव नहीं तो हम कितना बड़ा अवसर चूक जाते? 

आज इंटरनेट के जरिए विदेशों में लोग हिंदी, कन्नड़, तमिल, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी और कई भाषाएं सीख रहे हैं। परिश्रम से कार्य सिद्ध होते हैं, कुछ समय जरूर लगता है। हमारी भाषाएं हमारा गौरव हैं, जिनकी प्रतिष्ठा के लिए हमें हर संभव प्रयास करने होंगे।

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