क्यों करते हैं श्राद्ध और इससे क्या मिलता है फल? जानिए इसके बारे में सबकुछ

क्यों करते हैं श्राद्ध और इससे क्या मिलता है फल? जानिए इसके बारे में सबकुछ

इलाहाबाद/वार्ता। हिंदू संस्कृति में मनुष्य पर माने गए सबसे ब़डे ऋण पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए निर्धारित विशेष समयकाल पितृपक्ष की शुरुआत मंगलवार से हो रही है। इस दौरान सनातन धर्म के अनुयायी अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक पूर्वजों का मुक्तिकर्म अर्थात श्राद्ध करेंगे।

हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण प्रमुख माने गए हैं, इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा पूर्वज सम्मिलित हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है।

यूं तो पितृपक्ष 15 दिनों का होता है लेकिन इस बार षष्ठी तिथि का क्षय होने से श्राद्ध पक्ष 14 दिन का है। पितृपक्ष मंगलवार से शुरू शुरू होकर आठ अक्टूबर तक होगा। वैदिक शोध एवं सांस्कृतिक प्रतिष्ठान कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केंद्र के आचार्य डॉ. आत्माराम गौतम ने बताया कि भारतीय संस्कृति में अश्विन मास का कृष्ण पक्ष पितरों को समर्पित है।

वाल्मीकि रामायण में सीता द्वारा पिंडदान देने से दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। अपने वनवास काल में भगवान राम, लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम गए थे। आचार्य गौतम ने पुराणों और शास्त्रों का हवाला देते हुए बताया कि श्रद्धापूर्वक श्राद्ध किए जाने से पितर वर्ष भर तृप्त रहते हैं और उनकी प्रसन्नता से वंशजों को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सुख एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है।

उन्होंने बताया कि मार्कण्डेय और वायु पुराण में कहा गया है कि किसी भी परिस्थिति में पूर्वजों के श्राद्ध से विमुख नहीं होना चाहिए लेकिन व्यक्ति सामर्थ्य के अनुसार ही श्राद्ध कर्म करे। उन्होने बताया कि सभी प्रकार के श्राद्ध पितृ पक्ष के दौरान किए जाने चाहिए। लेकिन, अमावस्या का श्राद्ध ऐसे भूले बिसरे लोगों के लिए ग्राह्य होता है जो अपने जीवन में भूल या परिस्थितिवश अपने पितरों को श्रद्धासुमन अर्पित नहीं कर पाते।

श्राद्ध में कुश और काला तिल का बहुत महत्त्व होता है। दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। श्राद्ध वैदिक काल के बाद से शुरू हुआ। वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं। श्राद्ध के लिए चावल को मिट्टी के हंडिया में पका कर उसका लड्डू बनाया जाता है। उसके बाद उसे पत्तल पर रखते हैं। कर किसी पात्र में दूध, जल, काला तिल और पुष्प लेकर कुश के साथ तीन बार तर्पण करना होता है। बाएं हाथ में जल लेकर दाएं दाहिने हाथ के अंगूठे को पृथ्वी की तरफ करते हुए लड्डुओं पर डालते हैं। पितरों के निमित्त सारी क्रियाएं बाएं कंधे मे जनेऊ डाल कर और दक्षिण की ओर मुख करके की जाती है।

डॉ. गौतम ने बताया कि प्रत्येक व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के व़क्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। मान्यता है कि रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गए श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर पूर्वज अपने वंशधर को सपरिवार सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं।

श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।आचार्य गौतम ने बताया कि उपनिषदों में कहा गया है कि देवता और पितरों के कार्य में कभी आलस्य नहीं करना चाहिए। पितर जिस योनि में होते हैं, श्राद्ध का अन्न उसी योनि के अनुसार भोजन बनकर उन्हें प्राप्त होता है। श्राद्ध जैसे पवित्र कर्म में गौ का दूध, दही और घृत सर्वोत्तम माना गया है।

धर्मशास्त्र में पितरों को तृप्त करने के लिए जौ, धान, गेहूं, मूंग, सरसों का तेल, कंगनी, कचनार आदि का उपयोग बताया गया है। इसमें आम, बहेड़ा, बेल, अनार, पुराना आंवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, नीलकैथ, परवल, चिरौंजी, बेर, जंगली बेर, इंद्र जौ के सेवन आदि का भी विधान है।

तिल को देव अन्न कहा गया है। काला तिल ही वह पदार्थ है जिससे पितर तृप्त होते हैं। इसलिए काले तिलों से ही श्राद्ध कर्म करना चाहिए। उन्होंने भारतीय वैदिक वांग्ङमय के हवाले से बताया कि जीवन लेने के पश्चात प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण होते हैं। पहला देव ऋण, दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा पितृ ऋण्। पितृपक्ष में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध कर्म करके परिजन अपने तीनों ऋणों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। श्राद्ध में काला तिल और कुशा का सर्वाधिक महत्त्व होता है।

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